प्लीज़ मुझे और मत उकसाइएगा कहीं जो उकस गया तो फिर हत्याओं की लिस्ट जारी कर दूंगा

मैं मीडिया से रिटायर नहीं हुआ था। बाहर हो गया था। अचानक। एक दिन। मुझे याद है कि जिस दिन खबर छपी थी कि संजय सिन्हा नए चैनल में जा रहे हैं, उस दिन मेरे पास फेसबुक पर कितने सौ लोगों ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी। मुझे याद है कि कितने हज़ार संदेश मेरे फोन पर आए थे। मुझे याद है कि कोविड टाइम में कितने लोग मेरे घर आने को आतुर हुए थे कि एक बार मिल लें संजय जी। क्यों? और फिर? किसने फोन करके पूछा कि क्या हुआ? अचानक मीडिया संसार से बाहर कैसे? आपको वहां एक पत्रकार की हत्या नहीं दिखी?

संजय सिन्हा-

छत्तीसगढ़ में एक पत्रकार की हत्या पर हमारे परिजन मनोहर लाल लुधानी ने मुझे लानत भेजी है, “संजय जी, एक पत्रकार की हत्या कर दी गई और आप धुंध पर लिख रहे हैं।”

मैं यह लानत डिजर्व करता हूं। लेकिन मेरा एक प्रश्न है। आज एक पत्रकार की हत्या पर शोक क्यों? इसलिए कि उसने किसी किसी ‘सड़क ठेकेदार’ पर खबर दिखलाई अपने यू ट्यूब चैनल पर और फिर वो मार दिया गया? उसकी लाश सेप्टिक टैंक में चुनवा दी गई, इसीलिए? मनोहर जी, बहुत देर हो चुकी है। अब ये चिंता करने, शोक करने का समय नहीं है।

जिस दिन मैं पत्रकारिता की दुनिया में आया था, ये सोच कर ही आया था कि एक दिन मेरी भी हत्या कर दी जाएगी। कर भी दी गई। किसने क्या किया? किसने क्या कहा? किस पत्रकार ने पूछा कि संजय सिन्हा आपके साथ क्या हुआ? क्यों और कैसे अचानक आप मीडिया से ही गायब हो गए?

मनोहर जी, मैं पूरे होशो हवास में आपसे कह रहा हूं कि बहुत से लोग इत्तेफाक से पत्रकार बने होंगे, बहुत से लोग किसी घटना वश या फिर बहुत से लोग बस यूं ही कि कोई काम नहीं मिला तो पत्रकार बन गए और धीरे-धीरे संपादक भी।

लेकिन आपके संजय सिन्हा नहीं।

संजय सिन्हा मेधावी थे। ब्यूरोक्रेटिक परिवार (आईपीएस) में पले बढ़े थे। जब इस देश में बहुत से लोग हवाई जहाज को सिर्फ ऊपर उड़ते हुए देखते रहे होंगे , वो दुनिया का चक्कर लगा आए थे। पूरी न सही, बहुत दुनिया देख सुन कर, समझ कर उन्होंने पत्रकार बनने का फैसला लिया था। वो जानते थे कि इस पेशे में सैलरी कम मिलती है, लेकिन वो कम में जीने का संकल्प लेकर ही आए थे।

तब देश के सबसे ‘क्रांतिकारी’ अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से नौकरी शुरू हुई थी। ग्यारह साल वहां रहे। फिर ज़ी नेटवर्क, सहारा और 16 साल आजतक में। आखिरी सफर रहा टाइम्स का। ये पूरा (अधूरा) सफर छोटा नहीं था। आसान भी नहीं था।

जिस एक पत्रकार की हत्या पर आप ‘शोक’ मना रहे हैं, आपको शायद महाभारत की कहानी याद नहीं। वो राक्षस, जिसने पूरे गांव को खा जाने की तैयारी की थी, तो गांव के मुखिया ने कहा था कि तुम एक-एक करके लोगों को खाओ। राक्षस ने मुखिया की बात मान ली थी। मुखिया खुश था कि उसका घर तो गांव के अंतिम सिरे पर है। वहां तक तो राक्षस को पहुंचने में बहुत टाइम लगेगा। लेकिन हुआ क्या? सबको खाते-खाते राक्षस एक दिन मुखिया के घर पहुंच ही गया था। उस दिन मुखिया की पत्नी रो रही थी। “ओह! आज हमारी बारी।” मनोहर जी, मौत से किसी की रिश्तेदारी नहीं होती है। पहले गांव वालों की थी। फिर मुखिया की बारी आ गई।आनी ही थी। आती ही है। काश! पहले दिन ही करने वाले ने विरोध किया होता। पहले दिन ही मुखिया की पत्नी रोने लगती!

मनोहर जी, शोक मनाना है एक पत्रकार की हत्या पर? तो आइए शोक मनाते हैं। जिस दिन देश के जाने माने पत्रकार (दस्तक वाले) पुण्य प्रसुन वाजपेयी को ‘एबीपी’ न्यूज चैनल छोड़ कर जा रहे थे (जाना पड़ा था) तब कहां सो रहे थे?

 

याद है कि नहीं, कि एबीपी न्यूज़ चैनल पर रात नौ बजे जब उनका शो शुरू होता था तो देश भर में अचानक स्क्रीन ‘काली’ हो जाती थी। पूरे देश में एक साथ कुछ तकनीकी समस्या आ जाती थी। कोई कंपनी कब तक ये बोझ सहती? कंपनियां मुनाफे के लिए होती हैं, चैरिटी के लिए नहीं। मालिक लोग हमें पत्रकारिता में सिखलाते रहे कि ये तो ‘मिशन’ है।

खुद का बिजनेस, कर्मचारियों का मिशन। आप जानते हैं कि मीडिया की दुनिया में रात नौ बजे प्राइम टाइम होता है। उस टाइम पर सबसे महंगे विज्ञापन मिलते हैं। कौन नहीं जानता है कि बिना विज्ञापन के न्यूज चैनल नहीं चलते। काली स्क्रीन वाले एंकर को कुछ दर्शक सह भी लेते, लेकिन मालिक कितनी देर सहेगा? उन्हें निकाला नहीं गया, छोड़ कर जाना पड़ा। ओह! मैं भी कितना कायर हूं, कह नहीं पा रहा कि स्क्रीन का काला करना असल में एक पत्रकार की हत्या ही थी।

आप खुश हो सकते हैं। इसलिए कि आपको वो मुफीद नहीं लगते रहे होंगे। कोई किसी को मुफीद नहीं लगे तो क्या, उसके जीने खाने का हक भी छीन लिया जाता है? किसी की जीवन भर की अर्जित ‘प्रतिष्ठा’ छीन ली जानी चाहिए?

मुमकिन है कि बाद में खुद प्रसुन भी खुश हों कि वो यूट्यूबर बन गए, लेकिन… लेकिन क्या? आप नहीं समझते कि एक पत्रकार को कितनी पीड़ा हुई होगी?

रवीश कुमार को ‘एनडीटीवी’ से जाना पड़ा। मुमकिन है बहुत से लोगों की तरह आप भी खुश हुए होंगे। मुमकिन है कि अब रवीश भी खुश होंगे कि यूट्यूब पर वो और लोकप्रिय हो गए। संभव है यूट्यूब पर उनकी कमाई बढ़ गई हो, लेकिन जो हुआ उसमें आपको एक पत्रकार की हत्या नहीं दिखी? क्या आपको पूरे एक न्यूज चैनल की हत्या नहीं दिखी? कैसे दिखेगी?

आज आलम ये है कि मैं अपनी कहानी में ‘रवीश’ का नाम लेता हूं तो कई लोग मुझसे रिश्ता तोड़ कर चल देते हैं, जैसे कि…

याद है या भूल गए? नहीं याद तो यूट्यूब पर ढूंढ लीजिए, वीडियो क्लिप मिल जाएगी। ‘भारत वर्ष’ चैनल शुरू करने गए अजीत अंजुम, विनोद कापड़ी के लिए चैनल लांच के दिन क्या कहा गया था? और कैसे जो चैनल शुरू करने गए थे, जिन्होंने चैनल शुरू किया वही बाहर हो गए थे।

ये ठीक है कि कोविड में अपना यू ट्यूब चैनल चला कर अजीत अंजुम पॉपुलर हो गए और फिल्में बना कर विनोद कापड़ी भी। लेकिन आपको वहां पत्रकारों की हत्या नहीं दिखी थी?

कभी मेरे जूनियर रहे विश्वदीपक को तो आप जानते भी नहीं होंगे। वो ‘आजतक’ से जर्मन रेडियो तक गया था। वहां से लौट कर ‘ज़ी न्यूज’ पहुंचा था। उसे भी कुछ हज़ार रुपए की नौकरी चाहिए थी। सबको चाहिए होती है, जीने के लिए।

उसके साथ क्या हुआ? नहीं पता? क्यों नहीं पता?

पता कीजिए। गूगल खंगालिए। देखिए कि कैसे तब ‘ज्योतिरादित्य सिंधिया’ ने उसके लिए संसद में सवाल पूछा था। तब आपको चिंता नहीं हुई थी कि मेन स्ट्रीम का एक पत्रकार रोड पर कैसे और क्यों आ गया था? अब वो कैसे जिएगा? वो एक पत्रकार की हत्या नहीं थी?

क्योंकि तब गांव के दूसरे सिरे पर हत्या हो रही थी। सब चुप थे।

मैं मीडिया से रिटायर नहीं हुआ था। बाहर हो गया था। अचानक। एक दिन। मुझे याद है कि जिस दिन खबर छपी थी कि संजय सिन्हा नए चैनल में जा रहे हैं, उस दिन मेरे पास फेसबुक पर कितने सौ लोगों ने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी। मुझे याद है कि कितने हज़ार संदेश मेरे फोन पर आए थे। मुझे याद है कि कोविड टाइम में कितने लोग मेरे घर आने को आतुर हुए थे कि एक बार मिल लें संजय जी। क्यों?

और फिर? किसने फोन करके पूछा कि क्या हुआ? अचानक मीडिया संसार से बाहर कैसे? आपको वहां एक पत्रकार की हत्या नहीं दिखी?
नहीं दिखी तो कोई बात नहीं। मैंने कभी किसी ने नहीं कहा। मैंने बहुत बार कहा है कि मैं अपनी चादर के हिसाब से पांव फैलाना जानता हूं। मैंने शोक नहीं किया।

मैं पहले कहीं जाता था तो जो लोग मुझसे मिलने को आतुर रहते थे वो कैसे मेरी पत्रकारीय हत्या के बाद मुझसे दूर हुए आपको नहीं दिखा?

ये तो सिर्फ मेरे ‘फेसबुक परिजनों’ का प्यार है, जो मैं जीवित हूं, नहीं तो कैसे-कैसे लोग कैसे कैसे मुंह मोड़ गए किसे नहीं दिखा?

(जाना था हमसे दूर तो बहाने बना लिए)

मैं भोला हूं, अनाड़ी नहीं। मैंने भी दुनिया देखी है।

मैं एक नहीं सौ नाम गिना सकता हूं जहां पत्रकार की हत्या हुई है। आप सिर्फ शारीरिक हत्या पर शोक मनाते हैं। क्योंकि वहां सनसनी है।

कभी आपने ‘आर्टिकल 19’ नामक यूट्यूब चैनल देखा है? देखिएगा। उसको चलाने वाले से पूछिएगा कि आप ‘यूट्यूब’ पर क्यों?

नाम है नवीन कुमार। आप नहीं जानते, संजय सिन्हा जानते हैं कि जब लोग नौकरी के पीछे भागते थे, नौकरी उनके पीछे भागती थी। और एक दिन उनकी हत्या हो गई (कह कर नौकरी से निकलवाया गया)।

आपने तब उफ नहीं कहा। पूछते तो सही कि जिस पत्रकार को उसकी आवाज़ और स्क्रिप्ट से आप पहचानते थे, वो अचानक गायब कहां?

नहीं, ये लोग आपको नहीं दिखते। उनकी कहानी सुन कर आप चुप रह जाते हैं। जानते हैं क्यों? क्योंकि उनका मरा हुआ शरीर आपको नहीं दिख रहा, इसलिए आपको हत्या भी नहीं दिख रही। और आज आप शोक कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के एक पत्रकार की शारीरिक हत्या पर।

मैंने जितने लोगों के नाम गिनाए, वो सभी पत्रकार थे। क्योंकि उनका लिखा, बोला पसंद नहीं आ रहा था उन ‘ठेकेदारों’ को, जिनके खिलाफ वो लिख और बोल रहे थे।

माना आपकी पसंद की बात नहीं की उन्होंने, तो क्या उन्हें जीने का हक भी नहीं?

और जो नहीं, तो फिर जिसने किसी ‘ठेकेदार’ के खिलाफ (मैं नाम नहीं लिखता क्योंकि कानूनी तौर पर जब तक जुर्म साबित न हो, वो मुजरिम नहीं) कुछ लिखा, तो ठेकेदार ने उसे अपने अंदाज में रास्ते से हटा दिया, सेप्टिक टैंक में चुनवा दिया। वो सीमेंट-रेत का कारोबार करता था, वो यही कर सकता था। वो उतना ससूखदार ‘ठेकेदार’ नहीं था। होता तो ‘यूट्यूब वालों’ से कह कर उसे यूट्यूब से हटवा देता। तब आपको वो एक ‘पत्रकार’ की हत्या नहीं दिखती।

मनोहर जी, किसी पत्रकार की हत्या की इतनी चिंता है तो आइए मैदान में। घर में बीमार होकर चारपाई पर पड़े रह कर फेसबुक के कमेंट में बिलबिलाने से कुछ नहीं होगा, न मुझे कोसने से कुछ होगा। मुझे भी बुरा नहीं लगता था जब मुझे हर महीने लाखों की सैलरी मिलती थी। और एक दिन अचानक मैं ‘शून्य’ पर पहुंच गया, तब आपको बुरा नहीं लगा।

ये ठीक है कि इंडिया (भारत) में कोई भूख से अब नहीं मरता। फिलहाल इस देश में 80 करोड़ भिखारी जिंदा हैं। आप चाहें तो मुझे जोड़ कर 80 करोड़ 1 मान लीजिए। लेकिन प्लीज़ घड़ियाली आंसू मत बहाइए।

आंसू गिराने का शौक है तो ‘गूगल’, ‘चैटजीपीटी’ से पूछ लीजिए कि देश में कितने पत्रकारों की हत्या हुई है। वहां आपको शरीर के मार दिए जाने का आंकड़ा मिल जाएगा। मुझ जैसे पत्रकार की हत्या की कहानी वहां नहीं मिलेगी। इसके लिए आपको थोड़ी अधिक मेहनत करनी होगी, जागना होगा। पूछना होगा। सोचना होगा।

पहले हर कंपनी के पास ‘पीआर’ (जनसंपर्क) संस्था होती थी। हर मंत्रालय, मंत्री के पास जनसंपर्क अधिकारी होते थे । वो अधिकारी ‘दलाल पत्रकारों’ से दोस्ती रख कर अपने फायदे में लिखवाते थे, अपनो की कमियां छुपाते थे। तब भी जो पत्रकार नहीं दबते थे, उन्हें दबाने के सौ हथकंडे अपनाए जाते थे।

अब ऐसा नहीं है। अब जनसंपर्क वाले खुद पत्रकार बन गए हैं। मालिकों के साथ ऐसी सेटिंग हो चुकी है। जिस एंकर के मुंह से आप नेताओं की तारीफ सुनते नहीं अघाते, उसे देखते हैं, सुनते हैं, ‘मुर्गा लड़ाऊ’ बहस पर चर्चा करते हैं और आपको उसमें पत्रकारिता भी नज़र आती है, तो मनोहर जी, मेरी समझ में आप मर चुके हैं।

और मरे हुए लोग किसी की हत्या पर शोक मनाते अच्छे नहीं लगते हैं। संजय सिन्हा रिश्तों की कहानियां लिखते हैं, उन्हें लिखने दीजिए। मर जाने के बाद आत्मा को ‘रेस्ट इन पीस’ (RIP) कहा जाता है, तो उन्हें ‘पीस’ में रहने दीजिए। इंतज़ार कीजिए अगले जन्म का (अगर होता हो तो)। नहीं तो जो हुआ, उस पर चुप्पी साधिए, मौन धारण कीजिए। मस्त रहिए। बस ये याद रखिएगा कि ‘राक्षस’ एक दिन सबको खाता है। मुखिया को भी।

 

नोट-

  • महाभारत में ‘भीम’ आ गए थे। मुखिया का परिवार बच गया था। ऐसे में कोई भीम आ भी जाए तो क्या? बचेगा तो मुखिया और मुखिया का परिवार ही। जिन्हें मरना था (मुखिया के फैसले के कारण) वो तो मर ही गए।

  • मुझे अब किसी की हत्या पर शोक नहीं होता है। जो आया है, मरेगा या मार दिया जाएगा।

  • गीता में लिखा है कि न कोई मरता है, न कोई मारता है। तो यही सोच कर दिल को मना लीजिए कि ‘ठेकेदार’ ने पत्रकार को नही मारा है। ‘कृष्ण’ के शब्दों में वो ‘निमित्त मात्र’ है।

  • प्लीज़ मुझे और मत उकसाइएगा। कहीं जो उकस गया तो फिर हत्याओं की लिस्ट जारी कर दूंगा।

  • मनोहर जी, मैं बार-बार आपका नाम लिख रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि हमारे फेसबुक परिजन ये जानें कि कैसे आप खुद को शारीरिक बेबसी की चारपाई पर डाल कर, जब मौका मिलता है ‘बेचारा’ बन कर संजय सिन्हा को उकसाते हैं कि वो मोर्चे पर उतरें।

  • भाई, मरा हुआ आदमी कुछ नहीं कर सकता है। मैं मर चुका हूं।

  • आप में कुछ लोग खुश भी होंगे। अच्छा हुआ निपट गया। लेकिन मुझे किसी की खुशी या दुख से क्या लेना-देना। खुशी और दुखी होना जीवन का विषय है, मृत्यु का नहीं।

  • और एक बात जो हाल ‘उसका’ हुआ, वही सबका होगा क्योंकि ‘ठेकेदार’ किसी को नहीं बख्शते। उसकी कमियों के बारे में लिखेंगे, बोलेंगे तो वो जो कर सकता है, करेगा ही। ये युद्ध है (भले अधर्म युद्ध हो), और इसमें सब जायज होता है, सेप्टिक टैंक में चुनवा देना भी।

  • कानून ‘तन’ हत्या की सुनवाई करता है, मरने पर विवश ‘मन’ की हत्या’ की नहीं, तो आपके छत्तीसगढ़ वाले पत्रकार की हत्या की सुनवाई वो करेगा। गर फंस गया तो सजा मिलेगी, नहीं तो हज़ारों घूम रहे हैं, वो भी घूमेगा।

  • हम सब सेप्टिक टैंक के ही हकदार हैं, क्योंकि बदबू हमें सताती नहीं।

  • मैंने दीपक शर्मा का नाम नहीं लिखा है, अभिसार शर्मा का नाम नहीं लिखा है, श्याम मीरा सिंह का नाम भी नहीं लिखा है। अगर सारे नाम लिखने बैठा तो किताब बन जाएगी, कहानी नहीं रहेगी मेरी पोस्ट..

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