उत्तराखंड: एक तस्वीर पर टिकी सारी उम्मीद

दानिश ने इस महिला की फोटो जुलाई में खींची थी लेकिन इनका अब तक कुछ पता नहीं चला है

उत्तराखंड बाढ़ के बाद वहाँ की तबाही में फँसी एक महिला की ये तस्वीर अपने आप में सब कुछ बयां कर जाती है- उनका दर्द, उनकी लाचारी, उनकी बेबसी…इस तस्वीर में छिपे दर्द को बयां करने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत ही नहीं.

21 जुलाई को बद्रीनाथ में बाढ़ के बाद ज़िंदा बचे लोगों में ये महिला भी थी. ये तस्वीर उनके ज़िंदा होने की गवाही देती है लेकिन वो आज तक घर नहीं लौटी हैं.

जिस दिन की ये तस्वीर है उस दिन मुश्किल हालात में रिपोर्टिंग के लिए रॉयटर्स के फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीक़ी भी वहाँ पहुँचे हुए थे.

चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का आलम था. तभी दानिश की नज़र इस महिला पर पड़ी जो सैनिक से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रही थी कि किसी भी तरह वहाँ से निकाल ले.

“उस दिन मैं सेना के हेलिकॉप्टर से बद्रीनाथ के इस इलाक़े में पहुँचा था. तभी मेरी नज़र इस महिला पर पड़ी. वो बहुत बुरी तरह रो रही थी. बार-बार सैनिक से यही कह रही थी कि मुझे जाने दीजिए. लेकिन वो सैनिक भी इतना ही बेबस था और वो अनुरोध कर रहा था कि वो नहीं लेकर जा सकता. वो बोल रहा था कि मैं कैसे लेकर जाऊँ, मुझे पहले बुज़ुर्गों, ज़ख्मी लोगों को ले जाना है. उसके बाद मैं वहाँ से निकल गया था.इतना कह सकता हूँ कि वो सही सलामत थी और उसे कोई चोट नहीं आई थी.””

दानिश सिद्दीकी, फ़ोटोपत्रकार

ये तस्वीर कई अख़बारों में उत्तराखंड तबाही की छवि बनकर उभरी. इस बीच लखनऊ की रहने वाली इस महिला का परिवार उसके लिए परेशान था. फिर एक दिन परिवार ने यही तस्वीर एक स्थानीय अख़बार में देखी तो मन में उम्मीद जगी कि वो ज़िंदा है.

आज लगभग एक महीना होने को आया है पर इस महिला का कोई अता-पता नहीं. एक महीने बाद भी ऐसे हज़ारों लोग हैं जो उत्तराखंड गए तो थे लेकिन वापस नहीं लौटे और न ही उनके शव अब तक मिले.

उत्तराखंड बाढ़ पर विशेष

लखनऊ की जिस महिला की तस्वीर की बात शुरु में हमने की थी, उस तस्वीर के पीछे की कहानी जानने के लिए मैं फ़ेसबुक के ज़रिए उन तक पहुंची जिन्होंने ये तस्वीर खींची थी.

दानिश सिद्दीक़ी को वो हालात और वो पल अच्छी तरह याद है जब उन्होंने ये तस्वीर कैमरे में क़ैद की थी.

पेशे से फोटोजर्निस्ट दानिश बताते हैं, “उस दिन मैं सेना के हेलिकॉप्टर से बद्रीनाथ के इस इलाक़े में पहुँचा था. बहुत ही छोटा सा चॉपर था जिसके ज़रिए लोगों को निकाला जा रहा था. तभी मेरी नज़र इस महिला पर पड़ी. वो बहुत बुरी तरह रो रही थी. बार-बार सैनिक से यही कह रही थी कि मुझे जाने दीजिए. लेकिन वो सैनिक भी इतना ही बेबस था और वो अनुरोध कर रहा था कि वो नहीं लेकर जा सकता. वो बोल रहा था कि मैं कैसे लेकर जाऊँ, मुझे पहले बुज़ुर्गों, ज़ख्मी लोगों को ले जाना है. उसके बाद मैं वहाँ से निकल गया था. हाँ इतना कह सकता हूँ कि वो सही सलामत थी और उसे कोई चोट नहीं आई थी.”

कहाँ गए वो अपने…

दानिश ने बताया कि एक स्थानीय अख़बार में तस्वीर देखने के बाद महिला के परिवारवालों ने पता नहीं कैसे उनका नंबर ढूँढ निकाला. शायद इस उम्मीद के साथ कि दानिश से कुछ सुराग़ मिल पाए.

तब से प्रजापति परिवार देहरादून में ही डेरा डाले हुए है. दानिश बताते हैं, “महिला का भाई इस बात को लेकर परेशान हैं कि तस्वीर से साफ़ है कि उसकी बहन बद्रीनाथ में सुरक्षित थी, वहीं से लोगों को हेलिकॉप्टर के ज़रिए निकाला जा रहा था, उसे कोई चोट नहीं आई थी, फिर आख़िर उसके बाद वो ग़ायब कहाँ हो गई.”

हमने दानिश के ज़रिए ही परिवारवालों से बात करने की कोशिश की लेकिन इस वक़्त वे बेहद हताश और परेशान हैं.

ये केवल एक परिवार की नहीं बल्कि कई परिवारों की कहानी है क्लिक करेंजिनके अपने लापता हैं, -कितने ही ऐसे भाई अपनी बहनों, बच्चे अपने माता-पिता, और बूढ़े बुज़र्ग अपने नाते रिश्तेदारों का इंतज़ार कर रहे हैं.

दानिशदानिश जैसे कई फोटोपत्रकारों ने उत्तराखंड की तबाही और बाढ़ पीड़ितों की कहानी अपने कैमरे में क़ैद कर लोगों तक पहुँचाई है

अपनों की तलाश में भटक रहे कई लोगों की उम्मीदें बस एक तस्वीर पर टिकी हुई हैं जो उन्होंने किसी अख़बार, पत्रिका ये वेबसाइट पर देखी हैं.

नोएडा में रहने वाली रुचि के पिता भी उत्तराखंड से लापता हैं. कुछ दिन पहले रुचि ने बीबीसी की वेबसाइट पर एक तस्वीर देखी और उन्हें लगा है कि ये तस्वीर उनके पिता की है.

पिता की तलाश में जुटी रुचि ने बीबीसी में फ़ोन किया. कुछ छान-बीन के बाद मैं सज्जाद हुसैन नाम के उस फ़ोटोग्राफ़र तक पहुँची जिन्होंने ये तस्वीर खींची थी. रूचि और उनकी माँ के मन में फिर से कुछ उम्मीद बंधी.

लेकिन जल्द ही उम्मीद टूट गई. फ़ोटो में वो व्यक्ति रुचि के पिता जैसे तो थे पर रुचि के पिता नहीं.

ऐसे तमाम परिवारवालों के पास न तो अपनों की कोई खोज ख़बर है और न ही उनके लिए यक़ीन कर पाना आसान है कि उनके अपने नहीं रहे.

वहीं कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिन्होंने मन कड़ा कर ख़ुद को समझाना शुरु कर दिया है कि शायद उनके अपने कभी नहीं लौटेंगे.

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