पत्रकार की बात मानते तो रूक सकती थी दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी
विश्व सबसे भयानक त्रासदी के नाम से चर्चित भोपाल गैस रिसाव कांड को 30 वर्ष पूरे हो गये। 2-3 दिसम्बर 1984 की रात को यूनियन कारबाईड के भोपाल स्थित संयत्र से एक घंटे में 30 टन मिथाइल आइसो सायनाइट नामक जहरीली गैस के रिसने से 16000 लोग मारे गये थे। यद्यपि प्रदेश सरकार के अनुसार यह संख्या मात्र 3787 थी। गैस के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले 5 लाख लोगों में से 2 लाख तो 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे व 3000 गर्भवती महिलायें थी। लगभग 2000 भैसों, बकरियों व जानवरों को दफनाया गया। कुछ ही दिनों में सैंकड़ो हरे भरे पेड़ सूख गये। 2006 के सरकारी शपथ पत्र में गैस से 5,58,125 घायल घोषित किये गये। जिनमें से 38,478 अस्थाई आंशिक घायल और 3900 लोगों को स्थाई विकट विकलांगता से पीडि़त माना गया। यूनियन कारबाईड ने 470 मिलियन डाॅलर का मुआवजा दिया। हादसे के 17 साल वाद 2001 में डाऊ कैमिकल्स ने संयत्र को यूनियन कारबाईड से खरीद लिया।
यूनियन कारबाईड के चेयरमैन व सी.ई.ओ वाॅरेन एंडरसन पर भोपाल की अदालत मे चले मुकद्धमे में लगातार गैरहाजिर रहने के वाद 1फरवरी 1992 में उसे भगौड़ा घोषित करने के वाद अदालत ने भारत सरकार को एंडरसन को भारत लाने का आदेष दिया। एक के वाद एक आई सरकारें अमरीकी नेताओं के भारत दौरों पर करोड़ो रूपया खर्च करती रहीं। परन्तु एंडरसन को भारत नहीं ला र्पाइं। जो 29 सितम्बर 2014 को 92 वर्ष की उम्र में अमरीका में मर गया। ज्ञात रहे कि वाॅरेन एंडरसन को हादसे के वाद भोपाल से सरकारी हैलीकाप्टर द्वारा दिल्ली और वाद में सुरक्षित अमेरिका पहुंचाया गया।
‘सुरक्षा सबसे पहले‘ का नारा देने वाली इस कम्पनी पर खर्चा कम करने के नाम पर सुरक्षा नियमों की अनदेखी करने के आरोप भी लगे। संयत्र में दिसम्बर 1984 से पहले होने वाली दुर्घटनायों से भी सवक नहीं लिया गया। सुप्रसिद्व फ्रांसीसी लेखक डोमेनक लापेयरे की किताव ‘भोपाल पास्ट मिडनाइट‘ के अनुसार 23 दिसम्बर 1981 को कम्पनी के विश्सनीय तकनीशियन मोहम्मद अशरफ को नियमित रखरखाव के दौरान फाॅसजीन की चपेट में आने के वाद हमीदिया अस्तपताल में भर्ती कराया गया। जहां उसे लगातार हुई उल्टियों में तव तक पारदर्षी तरल पदार्थ के साथ खून निकलता रहा। जव तक कि वो मर नहीं गया। ज्ञात रहे कि इस अमेरिकी कम्पनी में काम करना प्रतिष्ठा सूचक माना जाता था। भले ही वो नौकरी छोटे स्तर की ही क्यों न हो। इसी चकाचांैध को वरदान मानते हुये कानपुर के एक कपड़ा व्यवसायी ने अपनी लड़की सजदा बानो की षादी अषरफ से की थी। उसे नहीं मालूम था कि यह कम्पनी उसकी लड़की के लिये वरदान नहीं वाल्कि अभिषाप साबित होगी।
कम्पनी के दो श्रम संगठनों के मुखिया शंंकर मालवीय व बशीर उल्ला ने प्रंबधन को अषरफ की मौत का जिम्मेदार ठहराया। 10 फरवरी 1982 को हुई दूसरी दुर्घटना में फाॅसजीन के रिसाव के वाद 25 कर्मियों को अस्पताल का मुंह देखना पड़ा। परन्तु सौभाग्य से सभी वच गये। 5 अक्तूबर 1982 को तीसरी वार गैस रिसते ही पूरे संयत्र को सायरन वजाकर खाली करवाया गया। धैर्य टूटते ही कर्मचारियों ने भूख हड़ताल षुरू कर दी। कार्मिक प्रंबधन ने जोरदार हस्तक्षेप के वाद फैक्टरी के अन्दर सभी तरह की मीटिंग को प्रतिबन्धित कर दिया। गुस्साये श्रमिकों ने 6000 पत्रक संयत्र व भोपाल में चिपका कर सूचित किया कि कम्पनी के कर्मचारियों व भोपालवासियों की जान को खतरा है। क्योंकि कम्पनी एक जहरीली गैस वना रही है। पत्रक में सभी दुर्घटनाओं, सुरक्षा नियमों की अवहेलना का विस्तार से जिक्र था।
आज जहां कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर पत्रकार व मीडिया समूह किसी न किसी पार्टी या काॅरपोरेट घराने के पिट्ठू हैं। जिनका एकमात्र मकसद अपने आका को खुश रखना है। वहीं तीन दशक पहले समाज व देश सेवा ही वहुत से पत्रकारों का एकमात्र मकसद था। ऐसे ही एक पत्रकार थे। भोपाल से ‘रपट वीकली‘ निकालने वाले श्री राजकुमार केसवानी। जिनकी तथ्यपरक रिर्पोटों को भी कम्पनी प्रंबधन व सरकार ने निरन्तर अनदेखा किया। पहली दुर्घटना में मौत का शिकार हुये अशरफ, केसवानी के कार्यालय के पास ही रहते थे। केसवानी को अशरफ व उसके साथियों से यूनियन कारबाईड के अपर्याप्त रखरखाव व सुरक्षा नियमों की अनदेखी का पता चला। एक रात तो केसवानी संयत्र में दाखिल होने में कामयाव रहे। उन्होंने अपनी आखों से खराव सुरक्षा उपकरणों व संयत्र के अन्दर के हालात का जायजा लिया। उनकी आखें फटी रह गई। जव उन्होंने मई 1982 में तीन अमेरिकी अभियन्ताओं द्वारा तैयार उस रिर्पोट को देखा। जिसमें सुरक्षा उपकरणों की वदहाली का जिक्र था।
एक अच्छे इनसान व पत्रकार का फर्ज निभाते हुये केसवानी ने 17 सितम्बर 1982 को ‘कृपया हमारे षहर को बख्ष दो‘ शीर्षक से अपनी अखबार में कंपनी प्रंबधन से अपील करते हुये भोपालवासियों से भी आग्रह किया कि अगर यहां कभी भंयकर हादसा हुआ तो यह मत कहना कि हमें इसके लिये किसी ने आगाह नहीं किया। एक बड़ी विदेशी कम्पनी के प्रोपेगडां के आगे भला एक साधारण सप्ताहिक की रपट का क्या असर होता। दुबारा 30 सितम्बर 1982 को ‘हम एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं‘ शीर्षक के अंर्तगत उन्होंने लिखा कि वो दिन दूर नहीं जव भोपाल एक मृत शहर होगा। जहां ईंट पत्थरों के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा। कोई असर न होता देख अगले सप्ताह केसवानी साहब का काॅलम था। ‘अगर तुम समझने से इन्कार करोगे तो मिट्टी में मिल जाओगे।‘
इसके बाद उन्होंने अपने सप्ताहिक समाचार पत्र को समेट कर इंदौर की तरफ रूख कर लिया। जहां एक बड़ा दैनिक अखबार उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। ज्ञात रहे कि कम्पनी के गैस रिसाव सम्वन्धी सवाल पर प्रदेष के रोजगार मंत्री ने संसद में कहा था। ‘यूनियन कारबाईड के संयत्र के वारे में कोई्र चिन्ता न करें क्योंकि कम्पनी में उत्पादित गैस जहरीली नहीं।‘ इस वात को ध्यान रखते हुये केसवानी जी ने मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को लिखे पत्र में विस्तारपूर्वक संयत्र के हालात का व्यौरा दिया। इस पत्र का केसवानी को कोई जवाव नहीं मिला।
डोमेनिक लापेयरे के अतिरिक्त दुर्घटना के वाद दिसम्बर 1984 में ही ‘न्यूयार्क टाइम्स‘ ने भी राजकुमार केसवानी की चेतावनियों का उल्लेख किया था। जिसके अंश ‘न्यूयार्क टाइम्स‘ के अनुसार ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ ने ‘आपरेशन सेफटी सर्वे‘ के षीर्षक के अंर्तगत प्रकाषित किये थे। ‘न्यूयार्क टाइम्स‘ ने केसवानी के हवाले से आगे लिखा कि यूनियन कारबाईड के संयत्र के कारण भोपाल में भयानक त्रासदी होने की चेतावनी का उनका लेख ‘जनसत्ता‘ के 16 जून 1984 के अंक में भी प्रकाशित हुआ था।
2009 में ‘बी.बी.सी‘ द्वारा संयत्र की उतरी दिषा में स्थित एक नलकूप के पानी की इंग्लैंड में जांच करवाने पर इसमें कैंसरकारक रसायन की मात्रा ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन‘ के मानकों से 1000 गुणा ज्यादा पाई गई। इसी वर्ष दिल्ली की प्रसिद्व पर्यावरण संस्था ‘सी.एस.ई‘ ने संयंत्र के 3 कि.मी. दायरे में भूमिगत जल में कीटनाशकों की मात्रा विष्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 500 गुना ज्यादा पाई।
2014 की मदर जोन्स की एक रपट के अनुसार भोपाल में आज भी 1,20,000 से 1,50,000 लोग कैंसर, टी.बी, जन्मजात शारीरिक व मानसिक विकलांगता जैसे गंभीर रोगों से ग्रसित हैं।
क्या 30 वर्षों वाद भी सरकारें, श्रम व मानवधिकार संगठन पीडि़तों को न्याय दिलाने में सफल हो पाये? मुख्य आरोपी वाॅरेन एंडरसन को मरने तक भी भारत न ला पाना किसकी विफलता है ? क्या रोजगार, विकास व तकनीक के नाम पर यूनियन कारबाईड जैसी और कम्पनियां या परियोजनायें आज भी इस देष में चल नहीं रहीं ? अकूत मुनाफा कमाना ही जिनका एकमात्र मकसद है। कुछ ऐसे ही प्रश्नों पर देश में सार्थक बहस की जरूरत है।
संजीव सिंह ठाकुर,9812169875