देह को पूंजी समझने वाली महिलाओं को कतई बर्दाश्त ना करें

सप्ताह भर हुए, प्रेस क्लब से निकल कर मेट्रो से गुड़गांव आ रहा था। सेंट्रल सेक्रेटेरिएट पर एक युवती चढ़ी, अपनी बुजुर्ग मां के साथ। मैं आरक्षित सीट पर नहीं था। युवती ने घुसते ही आदेशात्मक लहजे में मेरे बगल वाले सहयात्री को स्पेस बनाने को कहा। युवती पर गौर किए बिना पहले पलट कर ऊपर देखा, तो मेरा सहयात्री भी सामान्य सीट पर ही बैठा हुआ था। बहरहाल वो बुजुर्ग महिला बैठ गई, फिर उस महिला ने मुझे भी उसी लहजे में सरकने को कहा। गौर किया।
लाल शोख ड्रेस में कोई 30 के दरम्यां की युवती। रंग बेहद गोरा और बेहिसाब मेकअप। मैंने उसकी नजरों में नजरें डाली और कहा, “संभव नहीं है।” अब तक मैं सोच चुका था कि इस महिला की हेठी कबूल नहीं करूंगा। और शायद उसे इस बात का भ्रम है कि हर पुरुष, महिलाओं के देह संपर्क को लालायित रहता है, और खीसे निपोर कर सहर्ष खुद सिमट कर महिला को जगह दे देता है।
महिला सन्न रह गई। उसे उम्मीद ना थी कि कहर ढाते उसके हुस्न को इस कदर रुसवा किया जाएगा। देह को पूंजी समझने वाली उस शोख महिला की प्रतिक्रिया और भाषा गजब की रही। बोली…”अरे इतना फैल कर बैठा है..थोड़ा सरक नहीं सकता क्या..?”
अब यह जिज्ञासा थी या हुकुम.? उस वक्त तो ना समझ पाया। फिर आदतन मैंने शुरुआती विनम्रता और सबको शिक्षित समझ बैठने की गलतफहमी के साथ उत्तर दिया, “देखिए मोहतमा, आप मुझे बाध्य नहीं कर सकती हैं कि मैं यह सीट छोड़ूं. यह अलग बात है कि आपका लहजा यदि संभ्रांत होता तो मैं जगह जरूर देता..फिलहाल मुझे आपका लहजा पसंद नहीं आया और “लॉ” मेरे साथ है, आपके हुक्म को खारिज करता हूं।”
इतना कहना था, मोहतरमा आवेश में आ गईं, और दिल्ली वाले लहजे में पलटवार करते हुए बोलीं, “अबे तेरे जैसे को तो मैं ठीक कर देती हूं, तेरे खानदान को जानती हूं..ब्ला ब्ला ब्ला…।” तो फिर अपन भी इलाहाबादी वाले लहजे में उठें, और बोला “एक झापड़ मार कर कान पकड़ कर ट्रेन से बाहर कर दूंगा, आपको क्या लगता है तेरे न्यूसेंस से घबरा जाऊंगा..तेरी हरकतें सीसी टीवी में कैद हैं, मुझे सबूत नहीं जुटाने पड़ेंगे।” साथ में बैठे कुछेक महिलाएं और पुरुष यात्री भी उस बेसब्र महिला पर पिल पड़े।
तो मैं कहना यह चाह रहा था। कानून के संरक्षण का मतलब नैतिक हो जाना नहीं है। मेरे कुछेक जाति और रिलीजन विशेष के मित्र भी खुद को “नैचरल विक्टिम” की तरह पेश करते हैं। बेचारगी और तेवर दिखाते उनको पल भी नहीं लगता।  लेकिन इस तरह की महिलाएं बदलते भारत के लिए खतरनाक हैं। और वो पुरुष भी कम खतरनाक नहीं हैं जो सार्वजनिक जीवन में इस तरह की महिलाओं के सामने झुक जाते हैं। भले ही मकसद इंसानियत ही हो, या फिर हमारे समाज का यह बोध की महिलाओं को सम्मान दिया जाना चाहिए। पर हमें यह समझना होगा कि कौन सी महिला, देह की पूंजी पर इतराती और न्यूसेंस पर समाज में जगह बना रही है और कौन सी महिला अपने बौदि्धक क्षमताओं पर सम्मान की स्वतः ही हकदार है। इसका दूसरा पहलू भी है, जैसे ही हम देह घर्षण की चाहत में ऐसी महिलाओं को तवज्जो देते हैं तो कहीं ना कहीं, बौदि्धक क्षमताओं से लैस महिला के लिए स्पेस खत्म कर देते हैं. यह मेरी चेतना है..मुमकिन है, आपका विवेक और चेतना कुछ और कहती हो..?
मुझे तो अपनी बात कहनी थी बस।sumant bhattacharya

सुमंत भट्टाचार्या 

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