वकीलों को वजीफा, पत्रकारों को बाबा जी ………………..
कोई भी मुहावरा, कहावत या लोकोक्ति यूं ही हवा में नहीं बन जाती है, उसके लिए वक्त और अनुभवों की कसौटी पर ईमानदारी के सिल-बट्टे की जबर्दस्त कसरत की जरूरत होती है। इसके बाद ही किसी तपे-तपाये सोने की तरह ही कोई दमकता मुहावरा समाज में अपनी जगह बना पाता है। ठीक ऐसा ही मुहावरे पर जरा नजर फिराइये, तो सच आपके सामने आ जाएगा:- जब अपना ही सिक्का खोटा है, तो बाकी लोगों के सिक्कों पर क्यों गालियां दी जाएं।
जी हां, यह कहावत हमारे यूपी और खास कर लखनऊ के पत्रकारों के नेताओं पर पूरी तरह लागू होती है, जो पत्रकारिता में अपने दंद-फंद से किसी खतरनाक विषधर की तरह कुण्डली मारे बैठे हैं। आप इन पत्रकारों का इतिहास खंगाल लीजिए, तो साफ पता चलेगा कि खुद को पत्रकार नेता कहलाने वालों ने केवल पत्रकारों को ही नहीं, बल्कि पत्रकार बिरादरी को भी मौत की कगार पर खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बाकी जो कुछ भी किया है इन नेताओं ने, तो सिर्फ अपनी जेब भरने के लिए। पत्रकारों को चापलूसी और दलाली का सबक सिखाने वाले पत्रकार नेताओं की असलियत उनके कारनामों में साफ झलकती है।
यह सवाल तो आज तब अचानक भड़क गया, जब पता चला कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश के युवा वकीलों को सालाना 25 हजार रुपये स्टाइपेंड देने पर गम्भीरता से विचार करने का आश्वासन दिया है। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री ने तो अधिवक्ताओं की कल्याण निधि के लिए आयु सीमा 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष करने पर सैद्धांतिक सहमति भी जताई है। उन्होंने अधिवक्ताओं के मृत्यु पर डेढ़ लाख के अनुदान को बढ़ाकर पांच लाख करने पर सहमति जताई।
अब समझ में नहीं आता है कि जो काम वकील समुदाय के नेता मुख्यमंत्री से मिल कर सम्पन्न करा सकते हैं, वह काम यह पत्रकार नेता क्यों नहीं कर सकते। वकील नेताओं को मुख्यमंत्री से मिलने के लिए बाकायदा समय लेना पड़ता है, जबकि मुख्यमंत्री की किसी भी पत्रकार-वार्ता में पत्रकार नेता लोग लपक कर अगली सीटों पर धंस जाते हुए अपनी दलाली शुरू कर देते हैं। किसी भी मंत्री और मुख्यमंत्री को वकील से ज्यादा कोई लेना-देना नही होता है, लेकिन पत्रकारों से तो वह हमेशा गलबहियां किये रखते हैं। ऐसे में जो अधिवक्ता-हितों की घोषणा मुख्यमंत्री ने की है, उसी तरह की घोषणा पत्रकारों के लिए क्यों नहीं की गयी।
हैरत की बात है कि समाचारों की दुनिया से कोई भी लेनादेना रखने वाले इन पत्रकार नेताओं ने सत्ता के गलियारों में अपनी दलाली की दूकानें जमकर चमका रखी हैं। चाहे वह राजनीति हो या फिर नौकरशाही। यकीन न हो तो, तीन साल पहले शाहजहांपुर में एक जाबांज और ईमानदार पत्रकार जागेंद्र सिंह हत्याकाण्ड की फाइल खोल कर बांचिये, जिसे अखिलेश सरकार के मंत्री राममूर्ति वर्मा की शह पर नगर कोतवाल श्रीप्रकाश राय ने अपनी पुलिस पार्टी के साथ उसके घर पर दबोचा थ।और उस पर मिट्टी का तेल डाल कर जिन्दा जला दिया था।
लेकिन हमारे बड़े पत्रकार नेताओं ने उस मामले में कड़ी कार्रवाई करने के बजाय उसे अपने धंधे से जोड़ लिया। नतीजा, न राममूर्ति वर्मा पर कोई कार्रवाई हुई और न ही श्रीप्रकाश राय पर।
लेकिन इन पत्रकार नेताओं की करतूतों से ठीक उलट ऐसे भी पत्रकार मौजूद रहे, जिन्होंने जागेंद्र सिंह की हत्या को अपनी निजी क्षति मान लिया और उस का न्याय हासिल करने के लिए जी-जान से जुटे रहे। ऐसे ही हैं बुलंदशहर के पत्रकार पृथ्वीपाल सिंह, जिन्होंने जागेंद्र सिंह की झुलसी हुई देह को अपना फेसबुक प्रोफाइल-फोटो बना लिया है। तब से, जब से यह हादसा हुआ है। करीब दो साल हो चुके हैं।