खुद का मकान होने के बावजूद सरकारी मकानों पर अवैध कब्ज़ा जमाये पत्रकारों का मामला फिर पकड़ रहा तूल

राजधानी लखनऊ में अब ऐसे तथाकथित पत्रकारों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका सम्बन्ध भले ही लेखन क्षेत्र से न जुड़ा हो लेकिन अपना हित साधने की गरज से सत्ता और नौकरशाही के साथ उनके सम्बन्ध चर्चा का विषय जरूर बने हुए हैं। चर्चा इस बात की भी है कि आखिर नौकरशाही और नेताओं की मंडली किस लाभ के लिए ऐसे तथाकथित पत्रकारों को अपना संरक्षण दे रही है जिनका सम्बन्ध न तो उनके कथित प्रोफेशन से है और न ही सामाजिक सरोकारों से।

सत्ता और जनता के बीच सेतु का काम करने वाली मीडिया राज्य सरकारों के समक्ष नायक और निर्णायक की भूमिका में रही है, लेकिन पिछले दो दशकों के दौरान मीडिया से जुड़े ज्यादातर पत्रकारों के बीच उपजी लालसा ने उसकी गरिमा को खासी चोट पहुंचायी है। सरकारी लाभ लेने से लेकर अवैध उगाही में लिप्त कथित धंधेबाज पत्रकारों ने मीडिया के दायित्वों और उसके मिशन को अर्श से फर्श पर ला पटका है।

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यूपी की राजधानी लखनऊ में हालात अत्यधिक खराब हैं। यहां सरकार से लाभ लेने के साथ ही सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकार भी हैं जो किसी न किसी रूप में सरकार के अहसान तले दबे हैं। ऐसा ही एक मामला सरकारी मकानों में अध्यासित बकाएदार कथित पत्रकारों के रूप में सामने आया। सैकड़ों की संख्या में पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने वर्षों से किराया जमा नहीं किया है, इसके बावजूद वे न सिर्फ सरकारी मकानों में जमे बैठे हैं बल्कि सरकारी खर्च से रखरखाव के लिए अक्सर दबाव बनाते भी देखे जाते हैं। कुछ पत्रकारों ने तो बकायदा अपने मकानों में एक या दो कमरे किराए पर दे रखे हैं, इसके बावजूद किराए की मामूली रकम चुकाने में असमर्थता जताते हैं।

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इस बात की जानकारी राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारियों को भी है। इन अधिकारियों की मानें तो ऐसे पत्रकार मामूली किराया देने में समर्थ तो हैं लेकिन वे देना नहीं चाहते। दबाव बनाने पर कुछ पत्रकार तो उलटा उन्हीं पर आरोप लगाने लगते हैं। यहां तक कि सरकार को भ्रष्ट बताते हुए कहते हैं कि जब सरकार अरबों का घोटाला कर रही है तो कुछ पत्रकारों ने यदि सरकारी खजाने को हजारों की चोट पहुंचा भी दी तो क्या अनर्थ हो गया। यह मामला कोई नया नहीं है। वर्षों पुराना यह मामला इसलिए मीडिया की सुर्खियां नहीं बन सका क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। ज्यादातर कथित वरिष्ठ पत्रकार राज्य सरकार के अहसानों तले दबे हैं इसलिए ऐसे समाचारों को वे महत्व नहीं देते। गौरतलब है कि कुछ मामलों में तो न्यायालय ने भी हस्तक्षेप कर राज्य सरकार से उचित कार्रवाई की अपेक्षा की थी लेकिन पत्रकारों को सरकारी सुविधा की गुलामी में जकड़कर अपना हित साधने वाली राज्य सरकारों ने तथाकथित भ्रष्ट पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

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राजधानी लखनऊ में अब ऐसे तथाकथित पत्रकारों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है जिनका सम्बन्ध भले ही लेखन क्षेत्र से न जुड़ा हो लेकिन अपना हित साधने की गरज से सत्ता और नौकरशाही के साथ उनके सम्बन्ध चर्चा का विषय जरूर बने हुए हैं। चर्चा इस बात की भी है कि आखिर नौकरशाही और नेताओं की मंडली किस लाभ के लिए ऐसे तथाकथित पत्रकारों को अपना संरक्षण दे रही है जिनका सम्बन्ध न तो उनके कथित प्रोफेशन से है और न ही सामाजिक सरोकारों से।

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नौकरशाही के बीच मधुर सम्बन्धों का दावा करने वाले पत्रकारों की हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनके खिलाफ तमाम शिकायतों के बावजूद उच्चाधिकारी जिंदा मक्खी निगलने को विवश हैं। चाहें सरकारी बंगलों का सुख देने की गरज से राज्य सरकार के नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाने का मामला हो या फिर देश की सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखाने का मामला। शासन-प्रशासन ऐसे तथाकथित पत्रकारों को संरक्षण देने की गरज से हर सीमा को पार करता जा रहा है।

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