देश का मीडिया नोटबंदी के खिलाफ क्यों है?
नोटबंदी लागू होने और उसके बाद अब इसे लेकर रिजर्व बैंक की रिपोर्ट आने तक मीडिया लगातार नोटबंदी को लेकर नकारात्मक रहा है। कुछ अखबार और चैनल तो बाकायदा इसके खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं, जबकि कुछ दबी जुबान में ही इस पर सवाल खड़े करते रहे हैं। रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट में लगभग 99 फीसदी नोटों के वापस आने की जानकारी दी गई है। इस बात को मीडिया नोटबंदी की नाकामी बता रही है। ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने इसे नोटबंदी के फेल होने का लक्षण बताया है। जबकि दुनिया भर के तमाम बड़े अर्थशास्त्री सारे नोट वापस आने को अच्छी बात बता रहे हैं, क्योंकि इससे छिपे हुए काले धन पर सरकार को टैक्स मिल गया। फिलहाल मीडिया के रवैये को लेकर अक्सर ये सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि वो इससे खुश नहीं है।
विज्ञापनों से काली कमाई खत्म हुई
अखबार हों या टीवी चैनल, दोनों ही विज्ञापनों के जरिए कमाई करते हैं। कई बड़े और नामी अखबार भी क्लाइंट से विज्ञापनों का पैसा ब्लैक में लेते हैं। ऐसा करना दोनों के लिए फायदेमंद होता है क्योंकि इस लेन-देन पर उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता है। दिल्ली के एक बड़े अखबार के सेल्स डिपार्टमेंट के एक अधिकारी ने हमें बताया कि उनके यहां विज्ञापनों की दरों का 20 से 30 फीसदी अब तक कैश में लिया जाता रहा था। लेकिन नोटबंदी ने इस अवैध कारोबार को बंद करवा दिया। यही स्थिति चैनलों की थी जो विज्ञापनदाताओं से बड़ी रकम कैश में ले रहे थे। यही कारण है कि नोटबंदी के बाद अखबारों और चैनलों में विज्ञापनों की संख्या अचानक कम हो गई थी। सभी को मजबूर होकर कैश का काम बंद करना पड़ा। इसके कारण मीडिया की अतिरिक्त कमाई मारी गई। जाहिर है नोटबंदी के विरोध में उनका ये दर्द साफ देखा जा सकता है।
एड रेट्स बढ़ाना सिर्फ दिखावा था
नोटबंदी के बाद देश के दो प्रमुख अंग्रेजी अखबारों समेत लगभग सभी हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के अखबारों ने अपनी विज्ञापन दरें बढ़ा दी थीं। ऐसा ही कदम चैनलों ने भी उठाया। ये बढ़ोतरी 10 से लेकर 30 फीसदी तक थी। दरअसल ये बढ़ोतरी इस बात का इशारा थी कि विज्ञापन दर का जो हिस्सा अब तक कैश में लिया जाता था उसे अब व्हाइट में देना होगा। विज्ञापनदाता के लिए तो दर वही रही, क्योंकि वो पहले भी बाकी हिस्सा ब्लैक में दे रहा था। तब कई मीडिया समूहों ने औपचारिक तौर पर कहा था कि नोटबंदी के कारण उनकी वित्तीय स्थिति भी प्रभावित हुई है। जबकि कंपनियों के विज्ञापन खर्च में कोई कटौती नहीं हुई तो नोटबंदी से अखबारों की वित्तीय स्थिति प्रभावित होने का तर्क समझ से परे है। दरअसल जब नोटबंदी का एलान हुआ था तो ज्यादातर अखबार और चैनल समझ नहीं सके थे कि इसका उन्हें भी नुकसान होने जा रहा है, लेकिन ये बात पता चलने के साथ ही उन्होंने इस अच्छे कदम को लेकर दुष्प्रचार का काम शुरू कर दिया।
#नोटबंदी
6.
केवल अपने स्वार्थके लिए विरोधी और मीडिया आज इसे फेल करार दे रहे है पर वो भी जानते है अभी तो सतह पर ही है,गहराई तो अब नापी जाएगी।— Nitin L Dodiya (@mylovenamo) August 31, 2017
#नोटबंदी
9.
ओवरऑल नोटबंदी से सरकार का और देश का फायदा ही हुआ है बस वो दिखकर आने में अभी थोड़ा समय और लगेगा।— Nitin L Dodiya (@mylovenamo) August 31, 2017
आम नागरिक तो खुश है नोटबंदी से कांग्रेस आपिए और सर्कुलर मीडिया को छोड़कर।
सुप्रभात। https://t.co/ZKdG2AH6sj— ??Anand Kumar Singh? (@AnandKumarS1967) August 31, 2017
यही मीडिया पहले नोटबंदी को मोदी का मास्टर स्ट्रोक बता रहा था लेकिन आज ये क्या कह रहा है वाह! री मीडया https://t.co/oXbopxxssT
— gangasinghrawat (@gangasinghrawa3) August 31, 2017
मोदी जी को अब इन मीडिया वालों की भी
सम्पत्ति की जांच करानी चाहिए। ये भी संविधान
के अन्दर आते हैं। नोटबंदी के समय ये भी बड़े परेशान थे।— Pankaj #yadav (@YadavInsan) August 29, 2017
लगता है आजतक चैनल वाले को आजतक नोटबंदी के बाद सैलरी नही मिली है ,इसलिए आजतक नोटबंदी के पीछे परे है ,अरे भाई इससे बाहर निकलो https://t.co/rmaeopV9WT
— Ratnesh Kumar Raj (@Ratnesh35706259) August 31, 2017