वसुंधरा के काले कानून का क्या यह मतलब है- खाऊंगी , खाने भी दूंगी और बचाऊंगी भी
गजब हैं महरानी वसुंधरा राजे। खाता न बही, मैडम जो कहें, वही सही। दामन पर ललित गेट का दाग भी। एकदम तानाशाही की प्रतिमूर्ति। तानाशाही ऐसी कि घनश्याम तिवाड़ी सहित पार्टी के चार विधायक और दर्जनों पदाधिकारी भी खुलकर विरोध में ताल ठोंक रहे।
सरकारी मिल्कियत वाले दो हजार करोड़ के धौलपुर महल की चाबी बेटे को हवाले करने वालीं मैडम की महिमा अपरंपार है। अपने राज में चापलूस नेताओं और चहेतों को मालामाल होने का भरपूर मौका दिया। नेताओं और अफसरों के गठजोड़ ने राजस्थान को दोनों हाथों से खूब लूटा। मैडम को सपनों में ख्याल आया, कहीं उनकी कृपा से लूट मचाई कंपनी के कुकृत्यों का पर्दाफाश न हो। देर-सबेर सामने सिर तानकर सवाल खड़े होने लगेंगे तो क्या जवाब देंगी। तबतो बड़ी फजीहत होगी। लिहाजा, क्यों न सवाल उठाने वालों की जुबान ही सिल दी जाए। क्यों न पारदर्शिता के सारे रास्ते ही ब्लॉक कर दिए जाएं।
मैडम ने अपने दरबारी नौकरशाहों से रायशुमारी की। किसी ने सलाह दी-मैडम हुबहू अंग्रेजों के जमाने की तरह तगड़ा कानून लाइए, जिससे बड़े से बड़े भ्रष्टाचार का मामला सामने आने पर उसे कम से कम छह महीने तक तो दबाया ही जा सके। जब तक आप नहीं चाहेगी, तब तक न अखबार एकलाइन छाप सकते हैं और न पुलिस मुकदमा दर्ज कर सकेगी। मैडम ने कहा-कौन सा कानून लाया जाए, अफसर ने कहा- अरे मैडम जल्दी से ले आइए, आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश 2017। कानून बंद कर देगा मीडिया का मुंह और बांध देगा खाकी-कोर्ट का हाथ। तानाशाही पसंद मैडम को यह काला कानून जंच गया।
बस फिर क्या था कि पहले सात सितंबर को अध्यादेश लागू किया। अब उस अध्यादेश का स्थान लेने जा रहा लोकसेवकों को बचाने वाला बिल। राजस्थान विधानसभा में यह बिल पास कराया जा रहा। सोचिए, जिस दौर में गुड गवर्नेंस शब्द की सबसे ज्यादा चर्चा होती है। जब सरकारी कार्यों में पारदर्शिता के लिए आरटीआई, सिटीजन चार्टर जैसी अवधारणाओं से लोककल्याणकारी शासन पर बल दिया जा रहा हो, तब ऐसे काले कानून किसलिए और किसके लिए।
इस विधेयक के पास होते ही भ्रष्टाचारियों को अभेद्य सुरक्षा कवच मिल जाएगी। वह कवच, जिसे कोई चाहकर भी नहीं तोड़ पाएगा। बिल पास होने के बाद मंतरी से लेकर संतरी के खिलाफ केस दर्ज कराने से पहले राज्य सरकार से मंजूरी लेनी होगी। सरकार ने चाहा तो जांच होगी, नहीं तो नहीं। खास बात है कि पहले लोकसेवक सिर्फ गजेटेड अफसर ही माने जाते थे, मगर इस बिल में लोकसेवकों का दायरा बढ़ाकर किसी भी कानून के तहत लोकसेवक का दर्जा पाने वालों को भी शामिल कर दिया गया। यानी पंच से लेकर सरपंच तक को भी अब भ्रष्टाचार की जांच से बचाने के लिए कवच मिल जाएगा।
संवैधानिक मंशा को धता बताता कानून
वसुंधरा के बिल को कानूनविद पूरी तरह असंवैधानिक मानते हैं। भारतीय संविधान की मंशा है- किसी भ्रष्टाचार, पद के दुरुपयोग से संबंधित मामले की जांच याचिकाकर्ताओं का मूल हक है। यानी इसमें किसी की पूर्वअनुमति जरूरी नहीं है। मगर, वसुंधरा का बिल कहता है- लोकसेवक के खिलाफ केस दर्ज कराने के लिए सरकार से अभियोजन स्वीकृति लेनी होगी। सीमा है 180 दिन। क्या वसुंधरा का यह बिल संवैधानिक मंशा को ठेंस नहीं पहुंचाता।
सु्प्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक चुनावी हलफनामे में हर विधायक और सांसद को अपने ऊपर लदे मुकदमों की जानकारी देना अनिवार्य है। मगर वसुंधरा का बिल सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की ही धता बताता है। बिल के मुताबिक -सरकार से अभियोजन स्वीकृति मिलने से पहले दागी लोकसेवक का नाम व पहचान उजागर करने पर दो साल तक की सजा का हो सकती है। जब सुप्रीम कोर्ट हलफनामे के जरिए विधायक-सांसद को अपने केस सार्वजनिक करने को कहता है तब वसुंधरा राजे सरकार इस पर पर्दादारी क्यों कर रहीं।
भारतीय संविधान में संशोधन केवल संसद के स्तर से ही हो सकता है, मगर वसुंधरा सरकार अपने बिल के जरिए सीआरपीसी और आइपीसी में संशोधन कर धाारा 228 बी जोड़ना चाह रही है। वसुंधरा का बिल कहता है-कोर्ट भी सरकार की अनुमति के बिना जांच के आदेश नहीं दे पाएगी, जबकि सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत केस दर्ज करने के लिए कोर्ट ही आदेश देती है।