लखनऊ की तहजीब और अदब पर गुफ्तगू, सजी मुशायरे की महफिल
कोशला लिटरेचर फेस्टिवल का आखिरी दिन
लखनऊ का हर आदमी अपने-अपने आईने में लखनऊ का अक्स लेकर चलता है।” लखनऊ के बारे में यह बयान ‘कोशल लिटरेचर फेस्टिवल’ के मंच से गूँजा, जो शहर के ला-मार्टीनियर ब्वायज़ कॉलेज में आयोजित हुआ। रविवार को ‘पर्सपेक्टिव कल्चरल फाउंडेशन’ द्वारा आयोजित इस तीन दिवसीय फेस्टिवल का समापन दिवस था जो लखनऊ की तहजीब और अदब, खाना-खजाना, किस्सेबाजी और मुशायरे के नाम रहा।
दिन की शुरुआत ‘ख़ुफ़ियागिरी इन अवध’ विषय पर चर्चा के साथ हुई, जिसमें ऑथर, ब्लॉगर, ट्रैवेलर राइटर व कत्थक डांसर रिचा मुखर्जी से गौरव प्रकाश ने बात की। गौरव ने रिचा के तआर्रुफ में “वो हकदार हैं किनारों के, जो बदल दें बहारों को…” शेर पढ़कर पूछा कि आप एक साथ कई भूमिकाएँ निभाती हैं तो कैसे बैलेंस करती हैं इसे? जवाब में रिचा ने कहा कि मुझे हमेशा सीखते रहने की आदत है, सही समय पर सही निर्णय, परिवार का सपोर्ट, अपने काम पर फोकस, काम और खुद से प्यार करना….इन सबसे मुझे जीवन में संतुलन बनाने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि अवध में कुछ ऐसी चीजें हैं जो ज़्यादातर लोगों का नहीं पता। उनको हमें जानना चाहिए। रिचा ने अपनी किताब ‘कानपुर खुफिया प्रा. लि.’ के हवाले से इस विषय पर अपने विचार रखे।
दूसरा महत्वपूर्ण सत्र ‘रिफ्लेक्शन इन द मिरर ऑफ लखनऊ’ विषय पर फिल्मकार मुज़फ़्फ़र अली, लेखक गुरचरन दास व जॉन जुब्र्स्की, केएलएफ के मेंटर-एड्वाइजर व फूड क्रिटिक पुष्पेश पंत शिक्षाविद प्रो. निशी पाण्डेय के साथ मंच पर थे। लखनऊ के आईने से जिंदगी को देखते हुए मुज़फ़्फ़र अली ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा- जितनी तहें, जितने शख्स, जितने फन व फनकार लखनऊ में मिलेंगे, वो कहीं नहीं हैं। बक़ौल मुज़फ़्फ़र, लखनऊ मेरे लिए एक दर्द है जो मैंने जी के पाया है। मेरे लिए एक जबान है लखनऊ। इस लखनऊ में टूट के साथ जुड़ने की कैफियत भी है, ताकत है। यहाँ फन का खजाना है। यहाँ की हवा खुशबूदार, मुहब्बत से लबरेज है जो हमें घेर लेती है कि हम जो कुछ हैं बस इसी की देन हैं। उन्होंने अपनी किताब ‘ज़िक्र’ का भी ज़िक्र किया जो अवध के इर्द-गिर्द घूमती है। वहीं जॉन ने कहा, लखनऊ को मैंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ से जाना। यहाँ अवधी, ब्रज जैसी खूबसूरत भाषाएं हैं। टूरिस्ट प्लेस हैं। मैं यूपी के तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह से भी मिला था। गुरचरण दास बोले, मैं लखनऊ में रहा तो नहीं, मुजफ्फर अली की तरह लखनऊ को जिया तो नहीं…. मैंने लखनऊ को सिनेमा के जरिये जाना और उससे जुड़ा। इसके बरअक्स उन्होंने सत्यजीत रे और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की भी चर्चा की। चर्चा के दौरान पुष्पेश पंत का कहना था, लखनऊ शहर अंग्रेजी जुबान का नहीं, यहाँ अंग्रेज़ियत नहीं है। इस शहर की अपनी ही कैफियत है। मेरे लिए लखनऊ वो आईना रहा है जहां मैंने अपनी जिंदगी देखी है। इसके साथ रिश्ते अमिट हैं। मेरे लिए लखनऊ दुनिया का सबसे बड़ा शहर है। मेरे लिए लखनऊ मतलब मुजफ्फर अली है। लखनऊ वालों को अपनी जुबान, खान-पान और पहनावे पर नाज़ है। यहाँ खाने के जायके बहुत उम्दा हैं।
प्रो. निशी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी के हवाले से कहा कि पिछले 40 सालों में यह शहर काफी बदल गया है। खासतौर पर लखनऊ यूनिवर्सिटी के कैंपस में अब शांति है। जो बाहर के बच्चे लखनऊ आते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि लखनऊ क्या है? यह शहर क्या है? पहले यूनिवर्सिटी में बच्चे काफी क्रिमिनल मिजाज के होते थे। कैंपस में बम, गन्स, हत्याएँ… जैसे अपराध होते थे। गन लेकर गुंडे घूमते रहते थे, गैंग बनाकर। हमने ये दृश्य देखे और यूनिवर्सिटी के बच्चों को बहुत कुछ सिखाया, तहजीब से रहना बताया। वहाँ आज माहौल बदल रहा है, बदलाव देखने को मिल रहा है। वहाँ ‘तुम’ नहीं ‘आप’ का माहौल है। “नो हिन्दू-मुस्लिम रबिश इन कैंपस”। कैंपस में लिबरल माइंडसेट बदलने के सवाल पर वह बोलीं- कोई माइंडसेट नहीं बदला, वहाँ खूब लिबर्टी है। कौन-हिन्दू, कौन मुसलमान, बता नहीं सकते। एक बार जो लखनऊ यूनीवर्सिटी में पढ़ा तो वह लखनऊ का है। यह शहर सिर्फ वो नहीं जिसे नवाबों ने बनाया। लखनऊ वो भी है जिसे कायस्थों, पारसियों ने बनाया। मुजफ्फर अली ने गुजरे 40 साल में लखनऊ के बदलाव पर बोलते हुए कहा- मैंने लखनऊ को ख्वाबों में देखा, बदलते देखा, जी कर देखा। लखनऊ न हमारा है न आपका है, यह सबका है। लखनऊ एक विरासत है जिसे हमने सँजो के रखा है। हालांकि यहाँ पहले चिड़िया की चहचहाहट हुआ करती थी, अब हॉर्न की कर्कश ध्वनि सुनाई देती है। आखिर में उन्होंने मज़ाकिया अंदाज में यह कहकर अपनी बात खत्म की कि “लखनऊ इज बेसिकली ब्लेंडर्स प्राइड”।
तीसरे सत्र में फिल्मकार मुज़फ़्फ़र अली एक बार फिर तसव्वुफ़ के विषय पर सत्य सरन के सामने थे। लखनऊ पर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मुज़फ़्फ़र बोले, मैं लखनऊ में रहा और काफी कुछ सीखा। किस तरीके से हम दूसरे की तहज़ीब की कद्र कर सकते हैं, ये चीज हमें कश्मीर ले गई। हम लखनऊ से जो लेकर गए थे, वो कश्मीर में बहुत कम आया। फिल्मों की चर्चा छिड़ी तो मुजफ्फर ने कहा- हर फिल्म एक गहरा समंदर है। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। उन्होने एक शेर भी पढ़ा कि “जाने क्या हो गया दुनिया को, हर खबर नंगे पाँव आती है।” बक़ौल मुज़फ़्फ़र, जब आपकी आँख में आँसू हैं तो हुस्न भी क्या-क्या दिखाई देगा। जब आप तसव्वुफ़ को समझना शुरू करते हैं तो आपके दिमाग के दरीचे खुलते हैं। हर तरफ से ताजी हवा आने लगती है। आदमी जिंदगी को कैसे झेलता है, यह आँखों से बयां होता है। सारे अफसाने आँखों से बयां होते हैं। इसीलिए मैंने ‘उमराव जान’ में रेखा के जरिये आँखों से दास्तान कहने की कोशिश की। चर्चा के दौरान उन्होने गमन, अंजुमन, उमराव जान जैसी फिल्मों पर भी बात की।
इसके बाद ‘साउण्ड ऑफ पोइट्री’ सेशन में कस्तूरिका मिश्रा और दीपक बलानी की संगीतमयी पेशकश देखने को मिली। कस्तूरिका ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के कलाम “दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के, वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुजार के…” को तरन्नुम के साथ गाकर इसका आग़ाज़ किया। दीपक ने मज़ाज का कलाम गाया- ‘दिले-नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस मर्ज की दवा क्या है……” इसके बाद कस्तूरिका ने मुनीर नियाजी का- “जरूरी बात कहनी हो कोई वादा निभाना हो….” और दीपक ने अहमद फ़राज का मकबूल कलाम “आ फिर मुझे छोड़ के जाने के लिए आ…” गाकर समां बांध दिया। हर कोई उनकी गायिकी का कायल हो गया।
अगले सत्र में ‘ज़ायक़े अवध के’ विषय पर पुष्पेश पंत और मास्टर शेफ पंकज भदौरिया मंच पर नजर आए। इस जायकेदार चर्चा की शुरुआत करते हुए पंकज ने कहा- अवध जैसा खाना कहीं नहीं। दुनिया में इसकी एक अलग ही पहचान है खासतौर पर नवाबी व्यंजन। पंत ने नवाबी दस्तरखान के ऐतिहासिक किस्से सुनाते हुए यह कहा कि पहले यह जानने की जरूरत है कि अवध क्या है, लखनऊ शहर क्या है! इसके बाद हम लखनऊ के खाने की बात कर सकते हैं। उन्होंने बताया, बेगम अख्तर के खाने के शौक निराले थे। वे जहां गाने जाती थीं, बाकी चीजों के साथ अपने बावर्ची को भी लेकर जाती थीं। इसी क्रम में पंत में अब्दुल हलीम शरर की किताब ‘गुजिश्ता लखनऊ’ का जिक्र किया जिसमें खाने का एक चैप्टर है। पंत ने बताया कि लखनऊ, अवध का खाना वही है जिसे हम सौ-सवा सौ सालों का याद कर सकते हैं। लोकल फ्लेवर को हम अपने त्योहारों आदि संस्कृतियों के जरिये सँजो के रखते हैं। पंकज ने जब पूछा कि आज खाना खाने का पारंपरिक तरीका हमार घरों में क्या है? तो पंत बोले- मेरे खयाल में कोविड में जो सबसे अच्छा हुआ वो ये था कि सब साथ में खाने लगे, जो परंपरा पहले खत्म हो गई थी। उसके बाद लोगों को समझ में आया कि साथ बैठकर खाने का अपना ही मजा है।
अगला सत्र ‘क़िस्सेबाज़ी’ को लेकर था जिसमें फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया और निशी पाण्डेय देखने-सुनने वालों के समक्ष थे। अपने फिल्म डायरेक्शन और एक्टिंग को लेकर तिग्मांशु ने कहा, दुनिया के जितने आर्ट हैं उनमें सबसे ज्यादा मॉडर्न फॉर्म सिनेमा है। फिल्म इज डायरेक्टर मीडियम। मैं चाहता हूँ कि जब मैं डायरेक्शन करूँ तो एक्टर मुझे फॉलो करे। जब मैं एक्ट करता हूँ तो डायरेक्टर की कठपुतली बन जाता हूँ। “किस तरह के किस्से आप बयान करना चाहते हैं?” के सवाल पर तिग्मांशु बोले- बड़ा पेंचीदा सवाल है यह। कभी-कभी घर चलाने के लिए आपको कई तरह के काम करने पड़ते हैं। मेरे काम कुछ ऐसे भी रहे। बक़ौल तिग्मांशु, पार्टिशन के बाद बहुत से लोग बॉम्बे आए फिल्में बनाने के लिए। अच्छी फिल्में बनायीं भी। उनके बच्चे आए तो उन्होंने हिंदुस्तान को तो देखा नहीं था लिहाजा उन्होंने ऐसी फिल्में बनाईं जो बे-सिर पैर की थीं। रोमांस, शहर, पेड़ के गिर्द नाचना, स्तरहीन संवाद…..उनके मुख्य किरदार थे। इस स्थिति को हमने और अनुराग कश्यप जैसे लोगों ने बदला। यह सन 2000 का समय था। मुझे लगा अब टीवी नहीं करूंगा फिल्में बनाऊँगा। और फिर अपनी पहली फिल्म ‘हासिल” बनाई, जिसमें इरफान अच्छा काम किया था। हमने सिनेमा का चेहरा बदला। इसके जरिये हमने एक ट्रेंड सेट किया। फिर आगे चलकर हमने ‘पान सिंह तोमर’ और ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ बनाईं।
तिग्मांशु ने गोविंदा के साथ का एक किस्सा सुनाया- मैं एनएसडी से निकलकर बॉम्बे आया था गोविंदा के साथ काम करने के लिए। गोविंदा से मिलने हम और संजय मिश्रा बस में लटककर हैदराबाद तक गए लेकिन उन्हें हमसे मिलने का समय नहीं मिला। कहा कि हम मुंबई चलकर बात करेंगे और हम बस में फिर वापस आ गए। काफी जद्दोजहद के बाद भी गोविंदा के साथ बात नहीं बनी तो मैंने उनके साथ काम करने का विचार ही छोड़ दिया। यूथ को लेकर फिल्म बनाने पर बोले कि बड़ा मुश्किल है। आज युवाओं को कोई बात बताओ तो वे 5 मिनट के बाद भूल जाते हैं। मोबाइल की दुनिया में खो जाने के बाद ऐसा होता है। मैं खुश हूँ कि मेरा कनेक्शन इनकी पीढ़ी से नहीं है। फिल्में बनाने के उद्देश्य पर कहा- पहली चीज मैं जो भी फिल्म बनाऊँ तो वो चले। प्रोड्यूसर को उसका पैसा वापस मिले। फिर थोड़ी तारीफ हो फिल्म की। आपके अपनों की तारीफ मिले। सिनेमा के अब तक के परिदृश्य पर बोले- हिन्दी सिनेमा में शुरू से अब तक 20 के करीब ही फ़िल्मकार होंगे जो अच्छा सिनेमा बनाते थे। बाकी सब तो ट्रेश ही है। 10 प्रतिशत फिल्में ही काम की, बाकी सब ट्रेश (अच्छी नहीं)। ओटीटी पर बोले कि हमारे यहाँ लोग ओटीटी को सही से हैंडल नहीं कर पाते। इसके लिए सब्सक्रिप्शन नहीं लेते।
तिग्मांशु ने बताया कि वो अब बड़ा सबजेक्ट लेकर फिल्में बनाएँगे। फिलहाल वे फ़िल्मकार के. आसिफ को लेकर बायोपिक बना रहे हैं। इसके साथ ही तिग्मांशु ने इलाहाबाद को एक बेहतरीन शहर बताते हुए उस पर डाक्यूमेंट्री बनाने की बात भी बताई। आखिर में तिग्मांशु ने अपनी रोमांटिक लाइफ का दिलचस्प किस्सा सुनाया, कहा- मैं 8 में था और वो 7 में थी। फिर हमने वही किया जो ‘एक-दूजे के लिए’ में था।
इसके बाद ‘षडज’ म्यूजिकल बैंड की संगीतमयी प्रस्तुति ने लोगों का मन मोह लिया। गिटार की मधुर धुनों के बीच बैंड के हर्ष और कार्तिक ने जॉन एलिया, मुनीर नियाजी और दुष्यंत कुमार जैसे शायरों के कलाम को खूबसूरत अंदाज में पेश किया, जैसे- कहाँ तो तय था था चरागा हर एक घर के लिए… । पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की कविता ‘सवेरा है मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल….’ अलहदा अंदाज में गायी।
आख़िरी शाम मुशायरे से सजी, जिसमें ज़िया अल्वी, अक़ील नोमानी, पवन कुमार, अज़हर इकबाल, मनीष शुक्ला और अभिषेक शुक्ला जैसे शायरों ने श्रोताओं को अपने खूबसूरत कलाम से नवाजा। सबसे पहले अभिषेक ने पढ़ा- “हमारे ख्वाबों में एक दिन खो जाना, तुम इसके बाद सो सको तो सो जाना।” वहीं अजहर इकबाल का कलाम था- “अभी ये ऐलान मेरी जान विधिवत कर दो, मैं तुम्हारा ही रहूँ ऐसी वसीयत कर दो।” और “अपनी मर्यादाओं का गुणगान करते रह गए, देश हित में देश का नुकसान करते रह गए।” मनीष शुक्ला का कहना था- “पूरा कालिख से सने बैठे हैं, फिर भी किस तरह तने बैठे हैं।” पवन कुमार ने पढ़ा- “आता नहीं जिसको बिखरने का तरीका, सीखेगा कहाँ से वो सँवरने का सलीका।”
दिन भर चलते रहे कार्यक्रमों के बीच केएलएफ के निदेशक अमिताभ सिंह बघेल और संस्थापक प्रशांत सिंह लखनऊ के लोगों की जबरदस्त प्रतिक्रिया देखकर सुखद आश्चर्यचकित हुए। जेन ज़ेड से लेकर मिलेनियल्स तक, जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों ने ला मार्टिनियर में भाग लेकर उत्सव के प्रति अपना प्यार दिखाया। ओपन माइक सेगमेंट, “टेक द स्टेज” को भी लखनऊवासियों से असाधारण प्रतिक्रिया मिली। इसके तहत कविताओं, गजलों, म्यूजिकल बैंड परफ़ोर्मेंस का दौर चलता रहा। कोशला लिटरेचर फेस्टिवल लखनऊ की हर ट्रेंडिंग रील में चर्चा का विषय रहा है। अमिताभ सिंह बघेल और प्रशांत सिंह ने लोगों की शानदार प्रतिक्रिया के लिए उनका आभार व्यक्त किया। फेस्टिवल के समापन पर उन्होंने लखनऊ के लोगों और बाहर से आए हुए मेहमानों को इसे सफल बनाने के लिए धन्यवाद दिया। साथ ही केएलएफ की टीम का भी आभार व्यक्त किया जिसने इसे सफल बनाने में अपना अहम रोल अदा किया।