आंखों देखी : मीडिया का आपातकाल
Shrikant Singh के फेसबुक वाल से। 13 जुलाई। रात के लगभग दस बज चुके थे। मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी। हमारे दैनिक जागरण के सहयोगी रमेश मिश्र का फोन था। उन्होंने कहा, क्षेत्राधिकारी द्वितीय डॉक्टर अनूप सिंह ने बुलाया है। राष्ट्रीय सहारा कार्यालय परिसर में। मैंने तुरंत अपनी मारुति वैन निकाली और हम राष्ट्रीय सहारा के मुख्य द्वार पर पहुंच गए। चारों ओर पुलिस ही पुलिस। कहीं पीसीआर तो कहीं पुलिस की बुलेरो। यही नहीं, पुलिस के वज्र वाहन समेत कई बड़े वाहन खड़े थे। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई बड़ा दंगा हो गया हो। बिना किसी बात के उत्तर प्रदेश पुलिस को इस तरह से सक्रिय होते पहली बार देखा।
वहां सहारा कर्मचारियों के चेहरे पर भय और आशंका के साथ उत्साह का अद्भुत संगम नजर आ रहा था। टीवी चैनल के कुछ ऐंकर अपना काम छोड़ कर सड़क पर आ गए थे। लोग एकदूसरे से तरह-तरह की आशंकाएं जता रहे थे। कोई कह रहा था-रात 12 बजे के बाद पुलिस आंदोलनकारियों को उठा ले जाएगी। कुछ लोग कह रहे थे-आज तालाबंदी की घोषणा कर दी जाएगी। इसी आशंका के चलते टीवी चैनल की महिला कर्मचारी अपने बैग और दराज से अपने अन्य जरूरी सामान निकाल कर ले जा रही थीं कि कहीं तालाबंदी हो गई तो सामान कार्यालय परिसर में ही फंस जाएगा। यहां तक कि कुछ लोग खाने के लिए जो चना लाए थे, उसे भी निकाल कर ले जा रहे थे। कहीं पर महिला कर्मचारी को अपने नवजात शिशु के साथ बेचैन होते देखा। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे थे-बाप रे बाप, इतनी बड़ी सेना। आखिर किस लिए—कर्मचारियों का हक मारने के लिए। जब कोई अशांति नहीं है तो आखिर इतनी पुलिस फोर्स की क्या जरूरत थी। पुलिस फोर्स यदि इतना सक्रिय हो जाती तो उत्तर प्रदेश मेंं अपराध की दर कम हो सकती थी। कुछ लोग कह रहे थे-लखनऊ से फरमान जारी होने के कारण भारी पुलिस बल एकत्र हुआ था। कार्यालय परिसर के बाहर ही पता चला कि अंदर डॉक्टर अनूप सिंह कर्मचारियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। लेकिन कर्मचारियों पर प्रवचन का असर कहां होने वाला था। सबकी एक जैसी हालत थी-भूखे भजन न होइ गोपाला। यह लो अपना कंठी माला। इसी बीच अनूप बाबू बाहर निकले। वह कर्मचारियों को यही समझा रहे थे-अखबार बंद हो गया तो 75 फीसदी लोगों को नौकरी नहीं मिलेगी। मेरे कहने से मात्र आठ दिन और काम कर लो। पैसा मिल जाएगा। लेकिन कर्मचारी कह रहे थे-प्रबंधन से हमारा भरोसा उठ चुका है। इस पर अनूप साहब धमकाने के मोड में आ गए। उन्होंने कहा-हिंसा हुई तो एक हजार कर्मचारियों के लिए डेढ़ हजार पुलिस फोर्स आ जाएगी। इस पर कर्मचारियों ने कहा-हिंसा की तो कोई बात ही नहीं है। हमने अपनी मांगों के समर्थन में शांतिपूर्ण ढंग से काम बंद कर रखा है और आगे भी काम बंद रहेगा जब तक कि भुगतान का कोई ठोस आश्वासन नहीं मिल जाता। जो होगा, देखा जाएगा।
इस परिदृश्य से 1975 के आपातकाल की याद ताजा हो आई, जब पुलिस बल के जरिये मीडिया की जुबान को ताला लगा दिया गया था। आज पुलिस, प्रशासन और सरकार सब मीडिया मालिकों के पक्ष खड़े नजर आ रहे थे। मेरे पुराने मित्र रतन दीक्षित कहा करते थे-प्रेस को सरकार से उतना खतरा नहीं है, जितना अखबार मालिकों से है, लेकिन आज पत्रकारिता को हर ओर से खतरा नजर आ रहा है। आखिर यह मीडिया का आपातकाल नहीं तो और क्या है———–