मीडिया विमर्श: कॉरपोरेट के गुलाम चौथे स्तम्भ का मर्सिया पढ़ने का वक्त आ गया है
आनंद स्वरूप वर्मा
कारगिल युद्ध के समय इस तरह की खबरों की भरमार दिखायी देती थी। 3 जून 1999 को चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने प्रथम पृष्ठ पर एक खबर दी जिसका शीर्षक था ‘घुसपैठियो पर नापाम बमों से हमले’। यह समाचार किसी और अखबार में दिखाई नहीं दिया। ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने इस खबर के स्रोत का जिक्र नहीं किया था हालांकि यह महत्वपूर्ण खबर थी और इसके साथ यह जानकारी दी जानी चाहिए थी कि यह खबर कहां से मिली। अगले दिन 4 जून को ‘जनसत्ता’ ने भारतीय वायुसेना के हवाले से बताया कि यह खबर गलत है। इसी प्रकार मुंबई से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रेस जर्नल’ ने 14 जून को प्रमुखता के साथ एक खबर प्रकाशित की–‘गौरी और शाहीन को नियंत्रण रेखा पर तैनात कर दिया गया है।’
इस खबर का भी कोई स्रोत नहीं दिया गया था। फिर 25 जून को ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने सुर्खियों में छापा–‘गुलाम कश्मीर और पंजाब की सीमा पर पाक के परमाणु हथियार तैनात’। इस खबर का स्रोत क्या है इसकी भी कोई जानकारी नहीं दी गयी। कारगिल के मामले में मीडिया ने पूरे देश में जिस तरह का युद्धोन्माद फैलाया वह अभूतपूर्व है। इस काम में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया दोनों में होड़ लग गयी थी कि कौन कितना ‘देशभक्त’ है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निश्चय ही बाजी मार ले गया क्योंकि उसे पहली बार युद्ध के मोर्चे को जीवंत रूप में लोगों के ड्राइंग रूम तक पहुंचाने का अवसर मिला था। यहां यह गौर करना काफी दिलचस्प होगा कि उस वर्ष 12 जून तक, जबतक विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता से भारत बाहर नहीं हो गया, मीडिया की सारी देशभक्ति क्रिकेट पर न्यौछावर हो रही थी।
यहां तक कि 9 जून को पाकिस्तान के मुकाबले भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के समाचार को लगभग सारे अखबारों में पहला स्थान मिला जबकि उस दिन बटालिक और द्रास क्षेत्र में घमासान युद्ध चल रहा था। दरअसल क्रिकेट के बहाने तमाम बड़ी कंपनियां कारोबार कर रही थीं और इसके लिए विश्वकप को उन्होंने ‘राष्ट्रीय गौरव’ से जोड़ दिया था। 12 जून के बाद क्रिकेट का स्थान कारगिल ने ले लिया और फिर उन्हीं कंपनियों ने, जो कल तक क्रिकेट के जरिए देशभक्ति का स्वांग कर रही थीं, तुरंत क्रिकेट की जगह कारगिल को बैठा दिया और अब कारगिल के नाम पर व्यवसाय होने लगा। इस काम में व्यापारियों को मीडिया से भरपूर सहयोग मिला। ये खबरें 1999 की हैं।
अब एक दूसरी खबर देखिए जो अप्रैल 2017 की है। इस खबर का संबंध ईवीएम मशीनों से है। 13 अप्रैल 2017 को सभी अखबारों में और इससे पहले की रात में सभी टीवी चैनलों पर यह खबर दिखायी दी कि ‘चुनाव आयोग ने मई के पहले सप्ताह में ईवीएम को हाईजैक करने की खुली चुनौती दी है।’ किसी अखबार ने लिखा कि चुनाव आयोग ने यह चुनौती अरविंद केजरीवाल को दी है तो किसी ने कहा कि सभी विपक्षी दलों को चुनौती दी गयी है कि वे आवें और ईवीएम मशीन की गड़बड़ी को साबित करें।
बाद में पता चला कि यह खबर प्लांट करायी गयी थी। खबर पीटीआई द्वारा जारी की गयी लेकिन इसमें किसी स्रोत का उल्लेख नहीं है–केवल ‘आधिकारिक सूत्रों’ के हवाले से यह खबर जारी हुई है। न तो चुनाव आयोग ने इस आशय का कोई प्रेस रिलीज जारी किया और न कोई प्रेस कांफ्रेंस आयोजित किया। जाहिर सी बात है कि ईवीएम मशीन की साख पर जो लोग सवाल उठा रहे हैं उनकी आवाज को बेअसर करने के लिए सरकार की ओर से यह खबर प्रचारित करवाई गई। इसे आप आसानी से डिसइनफॉर्मेशन या मिसइनफॉर्मेशन अभियान का नमूना कह सकते हैं।
चुनाव के दिनों में पेड न्यूज के रूप में इस तरह की खबरें काफी चर्चा में रह चुकी हैं। पेड न्यूज के खिलाफ जबर्दस्त आवाज भी उठ चुकी है और भारतीय प्रेस परिषद ने भी इस पर कड़ा रुख अपनाया लेकिन प्रेस परिषद को बगैर दांत का शेर कहा जाता है क्योंकि इसके पास कोई अधिकार हैं ही नहीं। जनता के बीच भ्रम फैलाने और एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाने के मकसद से आये दिन खबरें प्लांट होती रहती हैं। यहां मैं एक खबर का उल्लेख करना चाहूंगा जिससे पता चलता है कि इनका स्वरूप कितना खतरनाक हो सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के धार्मिक स्थल विधेयक के विरोध में 21 अप्रैल 2000 को नयी दिल्ली के रामलीला मैदान में मुसलमानों की एक विशाल रैली हुई।
‘मजहब बचाओ’ रैली को जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी के अलावा अनेक मुस्लिम नेताओं ने संबोधित किया। लगभग सभी अखबारों में इस रैली की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इन अखबारों ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित किया कि रैली में संविधान समीक्षा तथा धर्मस्थल विधेयक के खिलाफ देश के मुसलमानों ने संघर्ष छेड़ने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक जागरण’ ने जो समाचार प्रकाशित किया, उसमें एक खास तरह का कौशल दिखायी देता है। इस अखबार ने अपने शीर्षक में लिखा–‘बुखारी का बाबरी मस्जिद बनाने का ऐलान’ और इसी के नीचे उपशीर्षक था-‘मैं आई एस आई का सबसे बड़ा एजेंट, सरकार में दम हो तो गिरफ्तार करे।’
यह उपशीर्षक बुखारी के किस वक्तव्य से लिया गया इसके लिए राजधानी से प्रकाशित हिंदी और अंग्रेजी के सभी अखबारों को देखना जरूरी लगा। अन्य अखबारों की खबरों के अनुसार ‘शाही इमाम ने कहा कि आई एस आई एजेंटों की गतिविधियों को रोकने की आड़ में यह बिल लाकर सरकार देश के मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश कर रही है। उन्होंने चुनौती दी कि सरकार अगर एक भी ऐसी मिसाल पेश कर दे जबकि कोई आई एस आई एजेंट किसी मस्जिद या मदरसे में पकड़ा गया हो तो वे खुद को हिंदुस्तान में आई एस आई का सबसे बड़ा एजेंट घोषित कर देंगे।’
मोर्चा, अखिल भारतीय ब्राह्मण संघ, शिवसेना पूर्वी दिल्ली, भारतीय विद्यार्थी सेना जैसे ढेर सारे संगठनों के बयान प्रकाशित किये जिसमें मांग की गयी थी कि बुखारी को गिरफ्तार किया जाय और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाय। इसके बाद 25 अप्रैल को ‘दैनिक जागरण’ ने पांच कालम में फैला एक शीर्षक लगाया–‘अब्दुल्ला बुखारी को गिरफ्तार करने की मांग जारी’। इस शीर्षक के अंतर्गत एक दर्जन संक्षिप्त समाचार थे। जिस समाचार से यह शीर्षक बनाया गया था वह किसी ‘भारत हितैषी’ नामक संगठन के अध्यक्ष कमल कुमार का वक्तव्य था। खबरों के साथ इस तरह का खिलवाड़ ‘दैनिक जागरण’ पहले भी करता रहा है और अयोध्या में कारसेवा के दौरान इसे इसके लिए ख्याति भी मिल चुकी है। रिपोर्टर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि ‘उम्मीद से ज्यादा भीड़ देखते ही बुखारी पहले से तैयार अपना भाषण पढ़ना भूल गये और रामलीला मैदान से संसद की तरपफ इशारा करते हुए कहा कि मारो इसे। उनके यह जोशीले अल्फाज सुनते ही मैदान में जमा हजारों मुसलमान भी मारो मारो कहकर संसद की तरफ निहारने लगे।’ यह एक खास तरह की रिपोर्टिंग थी जो किसी और अखबार में नहीं दिखायी दी।
कांग्रेस के पी वी नरसिंहाराव ने 1991 से जिस नवउदारवादी आर्थिक नीति की शुरुआत की वह प्रधनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह से होती हुई नरेंद्र मोदी तक जारी है। सितम्बर 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद और आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाया था जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्रियों को सलाह दी कि वे मीडिया को ‘कोऑप्ट’ करने की कला सीखें। अब आज अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने समूचे मीडिया को अपने अनुकूल कर लिया है तो इसमें आश्चर्य क्या। इसीलिए मुझे 2015 में अरुण शौरी की कही बात बहुत सही लगती है जिसमें उन्होंने मोदी सरकार को ‘कांग्रेस प्लस काऊ’ कहा था। लेकिन यह ‘काऊ’ वाला तत्व बेहद खतरनाक है।
ऐसी हालत में चौथे स्तंभ का मर्सिया पढ़ने का समय आ गया है। अब यह तथाकथित चौथा स्तंभ आम जनता के लिए दुश्मन के रूप में दिखायी दे रहा है। इसकी जब स्थापना हुई थी तो इसका मकसद लोकतंत्र के तीनों स्तंभों–कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका पर निगरानी रखना था। लंबे समय तक इसने अपने दायित्व को पूरा भी किया। लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया, इसका क्रमशः अधःपतन होता गया और आज ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि अब इससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। चूंकि इसपर किसी की निगरानी नहीं है इसलिए यह निरंकुश और बेलगाम हो गया है ओर अपने को जनता का नहीं बल्कि अपने कॉरपोरेट मालिकों का जवाबदेह मानता है।
जाहिर है कि ऐसे में इन तीनों स्तंभों के साथ साथ चौथे स्तंभ पर भी निगरानी रखने की जरूरत है और हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या एक परिकल्पना के तौर पर ही सही हम किसी ‘पांचवें स्तंभ’ को खड़ा कर सकते हैं? यह पांचवां स्तंभ अन्य स्तंभों के साथ साथ विशेष रूप से चौथे स्तंभ पर निगरानी रखेगा। आप यह सवाल उठा सकते हैं कि अगर चौथा स्तंभ भ्रष्ट हो गया तो क्या गारंटी कि पांचवां स्तंभ भी भ्रष्ट नहीं होगा। बात सही है। यह भी भ्रष्ट हो सकता है लेकिन इस काम में इसे भी कई दशक लग जायेंगे जैसा कि चौथे स्तंभ के संदर्भ में हुआ। यह पांचवां स्तंभ मुख्य रूप से पत्रकारों को लेकर बनाया जाएगा क्योंकि इसका काम पत्रकारिता पर निगरानी रखना है।
बावजूद इसके इस स्तंभ के साथ उन सभी लोगों को घनिष्ठ रूप से जोड़ना होगा जो राजनीति, स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थशास्त्र आदि अलग अलग क्षेत्रों में किसी विकल्प के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनके सहयोग के बिना न तो इस प्रयास को हम जिंदा रख सकेंगे और न इसे भ्रष्ट होने से बचा सकेंगे। यहां जवाबदेही का भी सवाल है। हमारी जवाबदेही उस व्यापक जनसमुदाय के प्रति होगी जो मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक स्थिति से क्षुब्ध है और किसी विकल्प की तलाश में है। इसे एक आंदोलन की तरह लेकर आगे बढ़ना होगा। केवल घोषणापत्र छाप देने और कमेटियां बना देने से इसे नहीं चलाया जा सकता। जब मैं आंदोलन की बात करता हूं तो हमें यह तय करना होगा कि हम किन्हें लेकर, किनके खिलाफ आंदोलन करना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें पांचवें स्तंभ की मित्र शक्तियों की शिनाख्त करनी होगी। इसी को ध्यान में रखकर मेरा मानना है कि समाज में विभिन्न क्षेत्रों में विकल्प के लिए संघर्षरत शक्तियों को साथ लेना होगा क्योंकि यही हमारी मित्र शक्तियां होंगी। इनके जरिये ही हम एक समानांतर सूचना व्यवस्था विकसित कर सकते हैं।
जर्मनी में फासीवाद के खिलाफ बौद्धिक लड़ाई लड़ने वाले मशहूर कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने एक लेख में झूठ के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए कुछ तरीके बताए थे। उनका कहना था कि पांच बातों को ध्यान में रखना चाहिएः 1.सच को कहने का साहस 2.सच को पहचानने की क्षमता 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल 4.उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है 5.व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।
पी. साईनाथ ने अपने एक वक्तव्य में एक बार कहा था कि आज मीडिया का झूठ बोलना उसकी संरचनागत बाध्यता है और इसे वह अपने सभी उपादानों सहित आत्मसात कर चुका है। इससे सहमत होते हुए मैं अपनी बात जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन से समाप्त करूंगा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘इन ए टाइम ऑफ यूनीवर्सल डिसीट, टेलिंग दि ट्रुथ इज ए रिवोल्यूशनरी ऐक्ट।’ अर्थात जिस समय चारों तरफ धोखाधडी का साम्राज्य हो सच कहना ही क्रांतिकारी कर्म है।
(वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरुप वर्मा का यह आलेख अपने मूल रूप में हाल ही में मीडिया विजिल के सेमिनार- “मीडिया : आज़ादी और जवाबदेही” में आधार पत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया था.)