अखबारों में सिंगल कालम जगह के लायक भी नहीं होते पत्रकार…क्‍यों

नगरनिगम के कर्मी दो महीने से तनख्‍वाह न मिले तो उनका संघर्ष अखबारों की सुर्खियां बनता है लेकिन कई महीनों से बिना वेतन काम कर रहे पत्रकारों की पीडा सिंगल कालम भी जगह नहीं पाती।

जानकारी मिली कि बीते कुछ दिनों में कई दैनिक अखबारों की डीएवीपी मान्‍यता रद हो गई। किसी तरह घिसटते अखबार अब जल्‍द बंद होने को हैं। नोटबंदी के बाद छंटनी का दौर है तो कहीं बंदी मुंह बाये खडी है। बडे बडे सम्‍पादकों से सजे विश्‍ववार्ता के दिन भी भी अच्‍छे नहीं रहे। सम्‍पादक व प्रबंधक को छोड जनसंदेश भी अपने पत्रकार भाईयों की पीडा से कराह रहा है। श्रीटाइम्‍स को उसके मैनेजर चबा गये तो आर्थिक रूप से समृध्‍द कैनविज टाइम्‍स भी कुछ चापलूस मैनेजरों व गददारों के कारण खत्‍म हो गया।

बरसाती मेढक की तरह आया सनस्‍टार भी अस्‍त हो गया। सहारा पहले से ही बेसहारा है। अच्‍छे खासे चल रहे ग्राम्‍य संदेश को चापलूसी की होड व आपस में वर्चस्‍व की जंग खा गई। अखबार की नीति कोई भी हो लेकिन इतनी बडी संख्‍या में पत्रकारों का बेरोजगार हो जाना किसी भी अखबार के लिए खबर नहीं बनता। नगरनिगम के कर्मी दो महीने से तनख्‍वाह न मिले तो उनका संघर्ष अखबारों की सुर्खियां बनता है लेकिन कई महीनों से बिना वेतन काम कर रहे पत्रकारों की पीडा सिंगल कालम भी जगह नहीं पाती।

और तब भी नहीं जब अखबार ही बंद हो रहे हो। मजीठिया से जुडी खबरें भी स्‍थान नहीं पाती चाहे वह जागरण हो या अमर उजाला, हिन्‍दुस्‍तान या फिर एनबीटी। इन अखबारों में बडे पदों पर बैठे लोग मूलत: पत्रकार हैं और सबने लखनऊ की इन्‍हीं सडकों पर संघर्ष किया है। पता नहीं ऐसी क्‍या मजबूरी है उनकी…। पत्रकार संगठन भी चुप हैं। यह पोस्‍ट बीते कई दिनों में बंद हो रहे अखबारों के पुराने साथियों की पीडा महसूस करने के बाद लिखी है।

कमलेश श्रीवास्तव के फेसबुक वाल से 

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