भ्रष्टाचार की आगोश में पूरी तरह से समाता जा रहा है लोकतंत्र का ‘चतुर्थ स्तम्भ’

सूबे के मुख्यमंत्री भले ही भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन के दावे करते आ रहे हों लेकिन सच्चाई उनके दावों से कोसों दूर है। जहां तक भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की बात है तो उनका स्वयं का विभाग (सूचना विभाग) ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। विभाग के ही कुछ अधिकारियों की मानें तो ऐसा नहीं है कि इस विभाग में तेजी से पांव पसार रहे भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें नहीं है। तमाम माध्यमों से समय-समय पर उनके विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें दी जाती रही है। यहां तक कि सूचना विभाग की यूनियन ने भी उन्हें कई बार पुख्ता प्रमाण के साथ भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें मुहैया करायी गयी, लेकिन ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री ने भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाए अपनी आंखे ही बंद कर ली हैं। भ्रष्टाचार से जुड़ा यह मामला उन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों से जुड़ा हुआ है जो कलम के बजाए कथित दलाली के सहारे अब तक अपना हित साधते आए हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनका न तो पहले कभी समाचार लेखन से सम्बन्ध था और न ही वर्तमान में। 

लोकतंत्र का स्वयंभू ‘चतुर्थ स्तम्भ’ भ्रष्टाचार की आगोश में पूरी तरह से समाता जा रहा है। यदि कुछ प्रतिशत पत्रकारों को अपवाद मान लिया जाए तो देश के लगभग सभी पत्रकार महज सरकारी सुविधा और दलाली के लिए ही मीडिया का सहारा लेते आए हैं। यहां तक कि कुछ मशहूर औद्योगिक घराने भी मीडिया की गरिमा को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।

इधर, यूपी में ज्यादातर पत्रकार अपना हित साधने के लिए उन तमाम अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, जो मीडिया की सेहत के लिए कतई ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि बात सिर्फ और सिर्फ उत्तर-प्रदेश के मीडिया की हो तो, यहां की दशा बेहद दयनीय है। उंगलियों पर गिने जाने वाले चंद पत्रकारों को यदि छोड़ दिया जाए तो यूपी की पूरी मीडिया मंडी और उससे जुडे़ पत्रकार महज दलाली के सहारे अपना हित साधते चले आ रहे हैं। एवज में उन्हें सरकार की ओर से वे तमाम सुख-सुविधाएं मुहैया करायी जा रही हैं जिसके वे हकदार नहीं है।

यह बात वर्तमान सरकार के जिम्मेदार अधिकारियों से लेकर स्वयं मुख्यमंत्री भी अच्छी तरह से जानते हैं, इसके बावजूद उनकी चुप्पी कथित ईमानदार पत्रकारों के समक्ष चिंता का सबब बनी हुई है। इस खबर में ऐसे तथाकथित भ्रष्ट पत्रकारों के कारनामों का खुलासा किया जा रहा है, जो स्वयं को कहलाते तो वरिष्ठ हैं लेकिन उनके कारनामे किसी किसी जालसाज से कम नहीं हैं। सरकारी आवास हथियाने के लिए फर्जी हलफनामे से लेकर वे तमाम तरह की प्रक्रियाएं अपनायी जाती हैं, जिनका यदि खुलासा हो जाए तो हजारों की संख्या में सरकारी आवास खाली हो सकते हैं। ऐसे पत्रकारों की संख्या भी कम नहीं है, जो जिन्होंने वर्षों से सरकारी आवास का किराया जमा नहीं किया है। उसके बावजूद वे सरकारी आवासों पर डटे हुए हैं। राज्य सम्पत्ति निदेशालय ऐसे पत्रकारों को दर्जनों बार नोटिसें भेज चुका है, इसके बावजूद न तो मकान खाली हुए और न ही लाखों के किराए जमा हो सके।

सूबे के मुख्यमंत्री भले ही भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन के दावे करते आ रहे हों लेकिन सच्चाई उनके दावों से कोसों दूर है। जहां तक भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की बात है तो उनका स्वयं का विभाग (सूचना विभाग) ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। विभाग के ही कुछ अधिकारियों की मानें तो ऐसा नहीं है कि इस विभाग में तेजी से पांव पसार रहे भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें नहीं है। तमाम माध्यमों से समय-समय पर उनके विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें दी जाती रही है। यहां तक कि सूचना विभाग की यूनियन ने भी उन्हें कई बार पुख्ता प्रमाण के साथ भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें मुहैया करायी गयी, लेकिन ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री ने भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाए अपनी आंखे ही बंद कर ली हैं। भ्रष्टाचार से जुड़ा यह मामला उन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों से जुड़ा हुआ है जो कलम के बजाए कथित दलाली के सहारे अब तक अपना हित साधते आए हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनका न तो पहले कभी समाचार लेखन से सम्बन्ध था और न ही वर्तमान में।

इसके बावजूद वे मान्यता प्राप्त पत्रकार बनकर सरकारी आवासों का लुत्फ उठा रहे हैं। गौरतलब है कि राज्य मुख्यालय से मान्यता प्राप्त पत्रकारों की संख्या लगभग 950 तक पहुंच चुकी है। जिला और मण्डल स्तर पर मान्यता की सूची हजारों का आंकड़ा पार कर चुकी है। अचम्भे की बात यह है कि मुख्यमंत्री की प्रेस वार्ता हो या फिर किसी अन्य मंत्री की। समाचारों से सरोकार रखने वाले पत्रकारों की संख्या उंगली पर गिनी जा सकती है। गिने-चुने प्रतिष्ठित अखबारों में ही प्रेस विज्ञप्तियां भी प्रकाशित होती हैं। फिर हजारों की संख्या में पत्रकारों का मान्यता देना गले नहीं उतरता।

”मान्यता के पीछे का खेल कुछ और ही कहानी कह रहा है। मान्यता के सहारे न्यूनतम दर पर सरकारी आवास का आवंटन ऐसे पत्रकारों का मुख्य ध्येय है। उसके बाद उसे किराए पर उठाकर प्रत्येक माह मोटी कमाई की जा रही है। इस बात की जानकारी सूचना विभाग काफी पहले शासन को दे चुका है। आश्चर्य तब होता है जब प्रति माह किराए के रूप में मोटी रकम कमाने वाले पत्रकार सरकार का मामूली किराया तक चुकाने में आना-कानी करने लगते हैं। कुछ तो ऐसे तथाकथित पत्रकार हैं जिन्होंने लाखों का किराया नहीं दिया। दबाव पड़ा तो दूसरा सरकारी आवास आवंटन करवा लिया, जबकि राज्य सम्पत्ति निदेशालय की आवास आवंटन नियमावली में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि यदि कोई पत्रकार किराये का बकायदार हो, तो उसका आवंटन तत्काल प्रभाव से निरस्त करने के साथ ही नियमों के तहत कानूनी कार्यवाही कर उससे किराया वसूला जायेगा। गौरतलब है कि प्रथम बार आवंटन एक वर्ष के लिए किया जाता है। उसके पश्चात एक-एक वर्ष के लिए नवीनीकरण करते हुए दो वर्ष तक आवंटन किया जायेगा।

”नियमानुसार नवीनीकरण पर तभी विचार किया जायेगा जब पूर्व आवंटन अवधि में आवंटी ने आवंटन शर्तों का किसी प्रकार से उल्लंघन न किया हो। किन्ही विशेष परिस्थितियों में राज्य सरकार द्वारा नवीनीकरण अवधि तीन वर्ष के पश्चात भी बढ़ायी जा सकती है, जो तीन वर्ष के पश्चात दो वर्ष से अधिक नहीं होगी। अत्यंत विशिष्ट परिस्थितियों में 5 वर्ष के बाद मुख्यमंत्री के अनुमोदन से ही आवंटन अवधि बढ़ायी जा सकती है। यह सुविधा पाने के लिए सर्वाधिक जरूरी है कि आवंटी समय से किराए का भुगतान करता रहे। इतनी सख्त नियमावली के बावजूद पिछले दो दशकों से जो तस्वीर उभरकर सामने आ रही है वह बेहद चैंकाने वाली है। कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिनका कई वर्षों से किराया जमा नहीं किया गया है, इसके बावजूद न तो उनका आवंटन रद्द किया गया और न ही बकाया किराया वसूल करने में विभाग दिलचस्पी दिखा रहा है।

कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने किराए की भारी-भरकम राशि जमा करने के बजाए अपने सियासी और नौकरशाहों से सम्पर्कों का फायदा उठाते हुए न सिर्फ लाखों का किराया माफ करवा लिया बल्कि अपग्रेडेड मकान का आवंटन करवा कर सरकारी नियमावली को भी चुनौती देते चले आ रहे हैं। इस काम में सूचना विभाग की भूमिका प्रमुख है। इसी विभाग के सहारे उन कथित पत्रकारों की मान्यता के लिए संस्तुति की जाती है जिनका समाचारों से भले ही सम्बन्ध न रहा हो, लेकिन अधिकारियों के लिए दलाली ने उन्हें पत्रकार जरूर प्रमाणित कर रखा है। जहां तक राज्य सम्पत्ति निदेशालय की जिम्मेदारी की बात है तो वह अपने उच्चाधिकारियों के आदेशों के आगे विवश है। राज्य सम्पत्ति निदेशालय के अधिकारियों की मानें तो किराया जमा न करने वाले तथाकथित पत्रकारों की जानकारी वह कई बार शासन को दे चुका है लेकिन शासन में बैठे अधिकारी कथित पत्रकारों की इसी कमी का फायदा उठाते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि सब कुछ जानते हुए भी जिम्मेदार अधिकारियों से लेकर स्वयं मुख्यमंत्री की खामोशी बेहद चैंकाने वाली है।

अभी हाल ही में सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के माध्यम से राज्य सम्पत्ति निदेशालय से किराए के रूप में 20 हजार रूपयों से अधिक बकायेदार पत्रकारों की सूची मांगी गयी। राज्य सम्पत्ति विभाग के जन सूचनाधिकारी/संयुक्त निदेशक  ने जो सूचना उपलब्ध करवायी है वह बेहद चैंकाने वाली है। तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में शुमार तीन दर्जन से भी ज्यादा पत्रकार ऐसे हैं जिनका किराया 25 हजार से लेकर सवा लाख तक बकाया है। कुछ तो ऐसे हैं जो पूर्व में आवंटित मकानों का लाखों का किराया न जमा करने के बाद भी नए मकान में तो अध्यासित हैं, साथ ही वर्तमान में भी किराया जमा नहीं कर रहे हैं। इसके बावजूद राज्य सम्पत्ति निदेशालय नियमावली के तहत उनसे मकान खाली करवाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।

कुछ पत्रकार फर्जी दस्‍तावेजों के सहारे ले रहे लाभ

राजधानी लखनउ से जुड़े कुछ कथित पत्रकारों ने रियायती दरों पर मकान की सुविधा लेने के साथ ही सरकारी मकानों पर फर्जी दस्तावेजों के सहारे कब्जा जमा रखा है। इस बात की जानकारी सम्बन्धित विभाग को भी है लेकिन वह अनजान बना हुआ है। यहां तक कि इस सम्बन्ध में पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, मायावती और वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी समस्त दस्तावेजों सहित जानकारी मुहैया करायी जा चुकी है, इसके बावजूद फर्जी दस्तावेजों के आधार पर सरकारी भवनों पर कुण्डली मारकर बैठे कथित पत्रकारों के खिलाफ न तो विधिक सम्मत कार्रवाई की जा रही है और न ही सरकारी भवनों से कब्जा वापस लिया जा रहा है। गौरतलब है कि प्रमुख सचिव ‘‘मुख्यमंत्री’’ राकेश गर्ग ने जांच के बाद शिकायत कर्ताओं को कार्रवाई का आश्वासन दिया था लेकिन पत्रकारों के फर्जीवाडे़ से जुड़ा यह प्रकरण उनमें हिम्मत पैदा नहीं कर पा रहा है।

सरकार फर्जी तरीके से लाभ लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई के मूड में नहीं

राज्य सम्पत्ति विभाग के एक अधिकारी की मानें तो सरकार पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने के मूड में नहीं है। विभागीय कर्मचारियों का कहना है कि ऐसे पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई तभी हो सकती है जब कोई जनहित याचिका दायर करे। राज्य सम्पत्ति विभाग के अनुसार सरकारी बंगलों पर सैकड़ों की संख्या में ऐसे पत्रकार काबिज हैं जो विभाग की नियमावली में फिट नहीं बैठते। इतना ही नहीं कुछ तो ऐसे कथित पत्रकारों को बंगला आवंटन किया गया है जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर का नाता नहीं है। कुछ तो पत्रकारिता का पेशा भी त्याग चुके हैं फिर भी सरकारी मकानों में कब्जा जमाए हुए हैं और विभाग भी उनसे मकान खाली नहीं करवा पा रहा है। कुछ पत्रकारों की मृत्यु के उपरांत उनके परिवार वाले सरकारी मकानों में जमे बैठे हैं।

नियम तो यह है कि यदि किसी पत्रकार की मृत्यु हो जाती है और उसके परिवार का कोई सदस्य मान्यता प्राप्त पत्रकार है तो मकान पर उसका कब्जा बरकरार रहेगा लेकिन कई मामले ऐसे हैं जिनके परिजनों का पत्रकारिता से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है फिर भी राज्य सरकार के मकानों का सुख भोग रहे हैं। राज्य सम्पत्ति विभाग प्रदेश सरकार की ओर से निर्देश न मिलने के कारण मन-मसोस कर बैठा है। विभाग के एक अधिकारी की मानें तो सम्बन्धित विभाग के मंत्री ने इशारा भर कर दिया तो निश्चित तौर पर तकरीबन 300 से अधिक फर्जी पत्रकारों को सरकारी बंगलों से हाथ धोना पड़ सकता है। दूसरी तरफ विडम्बना यह है कि पत्रकारों को आवास आवंटन के मामलों में आजम खां, शिवपाल सिंह यादव सहित कई मंत्रियों के सिफारिशी पत्र और उनके मौखिक आदेश कार्रवाई न होने के लिए जिम्मेदार हैं। विभाग कार्रवाई करना भी चाहे तो इन दिग्गज नेताओं के सिफारिश आडे़ आ जाती है। परिणामस्वरूप उसी को आधार बनाकर अन्य पत्रकार भी आवास खाली करने की नोटिस मिलने के बाद उन्हीं पत्रकारों का हवाला देकर बच निकलते हैं।

नियमावली के तहत सरकारी आवासों का आवंटन एक निर्धारित अवधि के लिए ही किए जाने का प्राविधान है। तत्पश्चात उक्त अवधि को तभी बढ़ाया जा सकता है जब समिति अनुमोदन करे। विडम्बना यह है कि उक्त नियमों का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है। कई-कई पत्रकार तो दशकों से सरकारी आवासों पर कब्जा जमाकर बैठे हैं। कई ऐसे हैं जो अखबार से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी और उनके परिवार वाले सरकारी आवास का लाभ उठा रहे हैं। गौरतलब है कि नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है कि पत्रकारों के आवास तभी तक उनके पास होंगे जब तक वे लखनउ में किसी मान्यता प्राप्त अखबार में कार्यरत रहेंगे। सेवानिवृत्त हो जाने के बाद अथवा तबादलदा हो जाने की स्थिति में उनका आवंटन स्वतः निरस्त कर दिया जायेगा। जानकार सूत्रों की मानें तो कुछ कथित पत्रकार ऐसे हैं जिनका दूर-दूर तक पत्रकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं है इसके बावजूद वे सरकारी आवासों का लाभ पत्रकार कोटे से उठा रहे हैं।

तत्कालीन प्रदेश सरकार के निर्देश पर शासन की ओर से जारी नियमावली में मान्यता प्राप्त संपादकों, उप संपादकों और ऐसे पत्रकारों को सरकारी आवास आवंटन किए जाने की सुविधा दी गयी थी जो पूर्ण कालिक रूप से समाचार-पत्र कार्यालय में सेवारत हों। साथ ही उनके समाचार पत्रों का पंजीकृत कार्यालय राजधानी लखनउ में हो। सरकारी मकान आवंटन में कोई त्रुटि न होने पाए इसके लिए सचिव मुख्यमंत्री की देख-रेख में एक समिति का भी गठन किया गया था। इस समिति में सचिव मुख्यमंत्री के साथ ही सचिव राज्य सम्पत्ति विभाग, सूचना निदेशक सहित राज्य सम्पत्ति विभाग के कई अधिकारी भी शामिल थे। इस समिति के पदाधिकारियों की जिम्मेदारी पत्रकारों की ओर से दिए गए प्रार्थना-पत्रों की गहनता से छानबीन के साथ मकान आवंटन की संस्तुति करने की है।

नियमों में साफ कहा गया है कि पत्रकारों को मकान आवंटन से पूर्व प्रत्येक पत्रकार के आवेदन को गुण-अवगुण के आधार समिति द्वारा निष्पक्ष जांच की जायेगी। तत्पश्चात संस्तुति प्राप्त होने के बाद मकानों का आवंटन किया जायेगा। यदि सही मायनों में देखा जाए तो तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने सरकारी मकानों को अवैध कब्जों की गिरफ्त में आने से बचाने के लिए फूल प्रूफ योजना बनायी थी। नियम इतने सख्त हैं कि यदि सही तरीके से बिना सिफारिश व दबाव के इनका अनुपालन किया जाता तो सरकारी मकानों में फर्जी पत्रकार घुस तक नहीं पाते।

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