अपना वजूद खो रहा है दैनिक ‘आज‘
न केवल यूपी बल्कि बिहार- झारखंड के बाजारों से ‘आज‘ गायब होता जा रहा है। लगता है बस विज्ञापन की खानापूर्ति के लिए इसकी प्रतियां छप रही हैं। एक रूपया दाम रहने के कारण चाय-पान की दुकानों और सैलूनों में ही इसकी प्रतियां दिख जाती है। प्रतियोगिता की इस दौड़ में ‘आज‘ बुरी तरह मात ही खा गया समझिये। वह भी क्या समय था जब हिन्दी भाषा को समृद्ध करने के लिए दे”ावासी ‘आज‘ ही पढ़ते थे। घरों में बच्चों को ‘आज‘ पढ़ने की नसीहत दी जाती थी। लेकिन बड़े घराने के अखबारों के बाजारों में छा जाने और आज प्रबंधन द्वारा खर्च से हाथ खीच लेने से ‘आज‘ की हालत बिलकुल खस्ता हो गयी है। ऐसी बात नहीं कि सरकारी विज्ञापनों से कमाई कम हो रही है। यूपी में भले ही कम हो लेकिन बिहार और झारखंड में जम कर सरकारी विज्ञापन मिल रहे हैं। इसके बावजूद मालिकों का ध्यान भी अखबार से हट कर दूसरे कारोबार में लग गया है।
इतिहास गवाह है कि शिव प्रसाद गुप्त द्वारा स्थापित ‘आज‘ बाबूराव विष्णु राव पराड़कर के लीडरशिप में इतना चमका कि दक्षिण भारतीय का भी यह लोकप्रिय पत्र बना। पंडित कमलापति त्रिपाठी,पंडित लक्ष्मी शंकर व्यास, विद्याभास्कर, चन्द्रकुमार, अटलजी, मनोरंजन कांजिलाल बाबू दूधनाथ सिंह, बाबू पारसनाथ सिंह, विश्वनाथ सिंह,राजनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, दीनानाथ गुप्त, राममोहन पाठक, धीरेन्द्रनाथ सिंह, लक्ष्मीनाथ संड, पदमपति शर्मा, जगत शर्मा, के अलावा कई ऐसे पत्रकार दधीचियों ने अपने खून-पसीना से आज को सींचा, इसे एक मुकाम तक पहुंचाया। आज इन दधीचियों को खुद अब ‘आज‘ प्रबंधन भी याद नहीं करता। इनमें कई दिवंगत हो गये तो कई अब भी अपनी कलम-कूची की बदौलत सुर्खियों में हैं। बाद की पीढि़यों में दिलीप शुक्ल, शशिशेखर, अमर सिंह, दिनेश चन्द्र श्रीवास्तव, अशोक चक्रवर्ती गणपति नावड़, जी पांडेय, ज्ञानवद्र्धन मिश्र, सुरेन्द्र किशोर, सत्यप्रकाश असीम, विद्यार्थीजी, अविनाश चन्द्र मिश्र, दिलीप श्रीवास्तव नीलू के अलावा एक दर्जन से अधिक पत्रकारों ने अपने-अपने क्षेत्रों में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए किसी अखबार को आगे नहीं बढ़ने दिया। आज क्या स्थिति है किसी से छिपी नहीं। वर्षों से कर्मियों को न तो कोई प्रोन्नति दी गयी है और न सालाना इन्क्रीमेंट ही। प्रोविडेड फंड का पैसा भी सरकार के खाते में न जमा कर कंपनी अपने निजी ट्रस्ट में ही जमा करती है। मासिक पगार भी एक महीना के अंतराल पर दिया जाता है, वह भी कर्मियों के मांगने पर। कर्मचारियों के समक्ष मजबूरी है कि वे कहीं जा नहीं सकते और ‘आज‘ में रह कर जी भी नहीं सकते। जीवन यापन लायक भी वेतन नहीं मिलता। यूपी की प्रायः सभी यूनिटों की हालत खस्ता है। खुद काशी का पयार्य माना जाने वाला ‘आज‘ अपने ही शहर में अपनी अंतिम सांसे ले रहा है। बिहार में इसकी एक ही यूनिट पटना में हैं।
यही हाल झारखंड का है। श्री सत्येन्द्र कुमार गुप्त के संपादक रहने पर सबकुछ ठीकठाक रहा। उनके पुत्र शार्दूल बिक्रम गुप्त के हाथों में बागडोर आने पर इसमें लेटेस्ट तकनीकी का उपयोग हुआ और यूपी में एक के बाद एक यूनिटों का विस्तार हुआ। उसी दौर में बिहार और झारखंड में इसका पदार्पण भी हुआ। समय बदला और बदली परिस्थितियां भी। कर्मियों को अब महसूस होने लगा है कि शार्दूलजी भी बस नाम मात्र के संचालक या संपादक रह गये हैं, बागडोर परिवार के ही किसी और के हाथ में है और अप्रत्यक्ष रूप से संचालन का काम वहीं से हो रहा है। आज की तारीख में पांच हजार रूपये वाले स्ट्रींगरों के बल पर ही अखबार चल रहा है। रेगुलर श्रमजीवी पत्रकारों की संख्या तो नहीं के बराबर रह गया है। किसी वेतनबोर्ड की सिफारिशों को नहीं मानना प्रबंधन अपना धर्म मानता है। ऐसी बात नहीं कि संचालकों के पास धन की कमी है। आधी काशी के मालिक ये लोग है। बस कमी है तो इच्छाशक्ति की। अब भी वक्त है। आने वाले वर्षों में अपने प्रकाशन का एक सौ वर्ष पूरा करने वाला है। प्रबंधन नये सिरे से धमाकेदार रिलांच करे और वह देखे कि उनका ‘आज‘ देखते-देखते कैसे बाजार में छा जाता है।