मजीठिया के लिए लडऩे वालों को धिक्कारते-गरियाते हैं ये भास्करिए

मजीठिया के लिए लडऩे वालों को धिक्कारते-गरियाते हैं ये भास्करिए
आज की ताजा खबर क्या है? एक दैनिक भास्करिया सहाफी (पत्रकार/रिपोर्टर) से मिलते ही मैंने यह सवाल दाग दिया। पहले वह अचकचाए। फिर संभले और तकरीबन हमलावर मुद्रा में बोले -आपका आशय-मतलब मजीठिया से है न! मैंने कहा, नहीं,नहीं। मजीठिया तो चल ही रहा है। कुछ नया बताइए। लेकिन मुझसे सहमत नहीं हुए और अड़ गए। कहने लगे, आपके पास मजीठिया के अलावा है ही क्या? मुकदमा आप लड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए हैं। चंडीगढ़ से दिल्ली तक आपने धमाचौकड़ी मचा रखी है। आपके पास और कोई काम तो है नहीं। मजीठिया में ही रमे हुए हैं। उसी की धुन में मगन हैं। मैंने कहा, नहीं मेरे भाई-अग्रज। ऐसा नहीं है। मेरे पास इसके अलावा भी अनेक काम हैं, सोच है, समझ है, जानने-सुनने-समझने की ललक-लालसा है। अगर मेरी सोच-समझ में कोई कमी-खोट-खराबी रह गई है, तो उसे दूर करने, नया जानने-सीखने की इच्छा-ख्वाहिश-तमन्ना है।
पर वह महानुभाव अपनी पका-बना-संजो-चस्पा कर रखी धारणा-सोच से टस से मस नहीं हुए। और नहीं तो उल्टे वह श्रीमान बेहद अहंकारी-घमंडी भाव-अंदाज में मेरी प्रताडऩा-अपमान की हद तक खिंचाई करने लगे। कहने लगे, मजीठिया के लिए आप जो कर रहे हैं, जो मुकदमा लड़ रहे हैं, उसका अंजाम कुछ नहीं निकलेगा। आपको कुछ नहीं मिलेगा। मेरी बड़े-बड़े वकीलों से बात हुई है, उन यादव वकील साहब से भी मेरी बात हुई है जो गठन के वक्त मजीठिया साहब के साथ वेज बोर्ड समिति में थे। मेरी सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील कोलिन गोंसाल्वेज से भी जनवरी में बात हुई थी। इस पर मैंने उन्हें टोका, कोलिन साहब से आपने जनवरी में बात की थी। इस मई के महीने में तो आपकी उनसे बात हुई नहीं। इस समय बात किए होते तो मौजूदा परिदृश्य से आप दो-चार हुए होते।
बेहद आक्रामक अंदाज में मुझे आड़े हाथों लेते हुए वे बिफर पड़े-हुआ क्या, सुप्रीम कोर्ट ने चार महीने के लिए और लटका दिया। पहले भी लटकाता ही रहा है। अखबार मालिकों को तो खुला अवसर दे दिया है मजीठिया की काट खोजने, कर्मचारियों को सताने-दबाने और यहां तक कि उनकी आवाज को हमेशा के लिए खामोश करने के लिए। यही नहीं, उन महान पत्रकार साहब ने मजीठिया वेज बोर्ड के गठन पर ही सवाल उठा दिया। और मुझसे पूछने लगे कि बताइए यह वेज बोर्ड बना ही क्यों? इसे बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी? इसे बनाने का औचित्य ही क्या था? मैंने कहा, जनाब अपन को इसका ज्ञान नहीं है। हमारा ज्ञानवर्धन करें तो बड़ी मेहरबानी होगी। हैरानी तो तब और हुई जब वह खुद भी वेज बोर्ड गठन की आवश्यकता की वजह बता पाने में नाकाम रहे।
इसके बाद तो वह महाशय निजी-व्यक्तिगत छींटाकशी, आरोप-प्रत्यारोप पर आमादा हो गए। इसी रोब-दबंगई में वह उस मीडिया पोर्टल को गाली देने लगे जिसने बड़ी तादाद में मीडिया कर्मियों का मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करा रखा है। उन महाशय ने और नहीं तो उल्टे उस पोर्टल को धोखेबाज-धंधेबाज, बिचौलिया, दलाल, छलिया आदि विशेषणों से विभूषित कर डाला। मैंने बेहद शांत लेकिन प्रतिकारात्मक लहजे में कहा, आपने एवं चंडीगढ़ के किसी भी भास्करिए मुलाजिम ने मजीठिया पाने के लिए किसी तरह की आवाज कभी नहीं उठाई। अगर आवाज उठाते, बोलते तो पता चलता कि उसके लिए कितने साहस-हिम्मत-हिकमत की जरूरत पड़ती है। उसके लिए कितना खून-पसीना-पैसा बहाना पड़ता है। भागदौड़-मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। इंसाफ पाने के लिए कितनी जुगत करनी पड़ती है। कितने लोगों से मदद लेनी पड़ती है। इस राह के कितने राहगीरों की संगत-साथ-सहयोग लेना पड़ता है।
मेरे समझाने-बुझाने तार्किक ढंग से पूरा मामला प्रस्तुत करने के बाद भी उनके कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। यों कहें कि उन्होंने कुछ भी सुनने-मानने-ग्रहण करने से इनकार कर दिया। हालांकि पांच-छह माह पहले चंडीगढ़ भास्कर मैनेजमेंट में निकालने पर पूरी तरह आमादा था। ऐसी स्थिति में वह भास्कर से लडऩे, यहां तक सुप्रीम कोर्ट भी जाने की तैयारी करने लगे थे। यह अलग बात है कि बाद में मैनेजमेंट के सामने वह अचानक नतमस्तक हो गए और चिरौरी-विनती करके फिर से ड्यूटी ज्वाइन करने में कामयाब रहे।
वैसे मैं चाहता था कि भास्कर के ज्यादा से ज्यादा कर्मचारी अगर एक साथ-मिलकर केस करेंगे तो उसका इंपैक्ट-असर-प्रभाव भरपूर पड़ेगा। और हमें कामयाबी निश्चित रूप से मिलेगी। लेकिन इनके जैसे जितने भास्कर कर्मियों से बात हुई सबने ऐन मौके पर मुंह मोड़ लिया। पीछे हट गए। या फिर टंगड़ी मार दी। मौजूदा समय की भी सच्चाई यही है कि मैंने चंडीगढ़ दैनिक भास्कर में जितने लोगों से बात की है उनमें से कोई भी मजीठिया पाने क्या, बात तक करने के लिए तैयार-राजी नहीं है। और नहीं तो उल्टे ऐसे प्राणी न्यायपालिका पर उंगली उठा रहे हैं। लेकिन इन-ऐसे प्राणियों को पता नहीं है, इस बात-हकीकत का इलहाम नहीं है कि मैदान-ए-जंग में उतरे लोगों को दो ही चीज मिलती है- जीत या हार। हम तो जीत के दृढ़ इरादे से उतरे हैं। इंशाअल्ला जीत हमारी ही होगी!
– भूपेंद्र प्रतिबद्ध, चंडीगढ़

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